2.05 गीता-हृदय . हृदयमें बैठके ईश्वर मैशीनकी तरह चलाता है। इसलिये उसी हृदयको सम्पादित करना, हृदयको वैसा ही बनाना यही हमारा काम है। इस श्लोकका यह भी प्राशय है कि हृदयमे जिस परमात्माका स्वरूप व्यक्त होता है वह मनुष्यको चलाता है उस हृदयके ही वलसे । जहाँ हृदय जा लगा वहाँ पहुँचना टल नही सकता । हृदयमें वह ताकत है जो और कही नही है । हिरण बाँसुरीका शब्द सुनके अपने आपको भूल जाता है । साँप भी सँपेरेकी बीनकी आवाजसे मुग्ध हो जाता है । इसीसे शिकारी और सँपेरा उन दोनोको आसानीसे पकड लेते है। उनके हृदयके ही चलते यह बात हो जाती है। उसका स्वभाव ही है । और जब क्षत्रियका हृदय स्वभावत युद्धमें ही रहता है, वही फँसा होता है, तो फिर अर्जुन हजार कोशिश करे, मगर वह रुकेगा कैसे ? वह तो युद्धमे जायगा ही, लडेगा ही। भगवान ही हृदयमे वैठके ऐसा करता है इस कहनेका आशय "मयाऽध्यक्षेण प्रकृति." (६।१०) मे बताई चुके है । उसके बिना जब प्रकृति कुछ करी नही सकती, तो हृदय तो उसीका रूप है न? फिर वह विना भगवानके कैसे करेगा ? इस प्रकार हृदयमें भगवानके रहनेका बहुत विस्तृत प्राशय इस श्लोकमे व्यक्त हो जाता है । जो लोग 'अह' 'मम' आदि शब्दोको आत्माके अर्थमे न लगाके एक निराले ही ईश्वरमें लगाते, उसे सर्वशक्तिमान मानते और जीवको उसका स्वरूप न मानके सेवक मानते है, उनसे हमारा अनुरोध है कि वे वृहदारण्यक उपनिषदके चौथे अध्यायका तीसरा ब्राह्मण पूरेका पूरा पढ जायें और देखे कि उसमे आत्माका ही निवास हृदयमे स्वय-ज्योति- रूपमे लिखा गया है या नही, सृष्टिका बनाने-बिगाडनेवाला उसे कहा गया है या नही और उसके सिवाय कोई दूसरी वस्तु हई नहीं है, यह बार-बार दिखाया गया है या नहीं। वही यह भी लिखा गया है कि वह स्वय-ज्योति है, उसका प्रकाशक कोई नहीं और जैसे ही सपनेमे वैसे ही जगने में सारी .
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८८८
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।