१०४ गीता-हृदय 1 किसीको कोई शकशुभा भी तो नहीं हो सकता कि वह निर्वाण मोक्ष प्राप्त करेंगे या नहीं। मगर जिनकी दूसरी हालत होती है और जो लोकसग्रह करते है उनका व्यवहारमें पूरा उपयोग होनेके साथ ही उनके बारेमें यह खयाल हो सकना स्वाभाविक है कि जब वे जनसाधारणकी ही तरह सब कुछ करते-घरते नजर आते है, तो उन्हे निर्वाण मुक्ति कैसे होगी ? फलत इन्हीके वारेमें अन्तमे स्पष्टतया कह देना जरूरी हो गया कि चाहे वह कही किसी भी दशामे रहे और कुछ भी करते रहे, फिर भी परम धाम, शाश्वत पद या निर्वाण मुक्ति उनके लिये घरी-धराई ही है । यही वात प्रागेके पांच श्लोकोमे कही गई है। अर्जुनको यह भी कह दिया गया है कि तुम्हारे जैसोके लिये तो यही रास्ता है। दूसरा हई नहीं । इसी- लिये यदि तुमने नादानी की और दूसरा मार्ग लिया, तो चौपट हो जाओगे। यह भी बात है कि तुम ऐसा कर भी नहीं सकते। क्योकि तुम्हारी तो क्षत्रियवाली प्रकृति है। इसलिये वह तुम्हे युद्धसे अलग जाने न देगी। प्रत्युत इसीमे तुम्हे जरूर जोत देगी। सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्यपाश्रयः । मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वत पदमव्ययम् ॥५६॥ सदा सभी तरहके कर्मोको करता हुआ भी मेरा स्वरूप बना हुआ (ऐसा मनुप्य) मेरी कृपासे-~-आत्मसाक्षात्कारके फलस्वरूप-निर्वि- कार शाश्वत पद-मोक्ष ---पा जाता है ।५६॥ इमीलिये अर्जुनको आगे स्पष्ट उपदेश दिया गया है कि तुम मोक्ष या परलोककी चिन्ता छोडके जैसा कहा जाता है करो और प्रात्मदर्शन, जिसे बुद्धियोग, ज्ञानयोग और साख्ययोग भी कहते है, के बदले सभी कर्मोको भगवानको सौपके उनकी जवावदेहीसे अलग हो जाओ। अव- तक जो तुम समझते थे कि आत्मामें ही कर्म है उसे गलत समझ कर्मोको भगवानमे फेकके भस्म कर दो और ग्रात्माके सिवाय और कुछ देखोही मन ।
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