प्रकारहवां अध्याय ६०१ असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः । नैष्कर्म्यसिद्धि परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥४६॥ सभी चीजोंमे जित्तकी बुद्धि आसक्तिशून्य है, कावूमे है और जो सभी इच्छाले रहित है, (व्ही मनुष्य कोंके स्वरूपतः) सन्यासके द्वारा परन नैष्कर्यकी प्राप्ति कर लेता है।४६॥ इसीलिये मने पहले भी कह दिया है कि इसी श्लोकमे संन्यास गव्दका अर्थ है स्वल्पत. कर्मोका त्याग । नैष्कर्म्यका परम विशेषण भी इत्तीसे संगत हो सकता है। इसके बाद तो 'तन्यस्य' गब्द एक ही दार ५७ श्लोकमे आया है। मगर वहाँ कोका स्वल्पत त्याग अर्थ है नहीं। वहगल क्रियावाचक है और अर्पण. रखने या समर्पणके ही मानीमे आया है। हाँ, तो इस तरह पूर्ण कर्म-त्याग हो जाने पर किस तरह वह्मात्माका साक्षात्कार होता है और उसमे कर्मकी निर्लेपता प्रतीत होने लगती है, झलक जाती है, यही बात आगेके चार श्लोक (५०-५३) बताते है। इत्तोको समाधि कहते है, ध्यान योग कहते हैं तथा ज्ञाननिष्ठा, समाधिनिष्ठा और ध्याननिष्ठा भी कहते है। इसीके चलते पूर्ण ज्ञान और आत्मदर्शन- को प्राप्ति हो जाती है। इसीलिये ज्ञाननिष्ठा इसे कहा गया है। बिना ऐसा किये ज्ञान परिपक्व नहीं होता और न सर्वत्र आत्मदृष्टि होती है । फिर कर्म छूटे कैले और आत्मा निलेप दिले कैसे ? इसके बाद ५४वे श्लोकमे उस जान या आत्म-दर्शनका स्वरूप कहके ५५वेमे कारण बताया है कि क्यो उसे पूर्ण ज्ञान, ज्ञाननिष्ठा या आत्मदर्शन कहते हैं। उसका परिणाम भी कह दिया है कि आत्मा ब्रह्मल्प ही हो जाती है. उत्तीमे मिल जाती है। सिद्धि प्राप्तो यथा ब्रह्म तयाप्नोति निदोध । समातेनैव कौन्तेय निष्ठा ज्ञानस्य या परा ॥५०॥
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