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व्यवसायात्मक बुद्धि ७५ बात यहाँ समर्थनके रूपमे दुहराई गई है। इसीलिये श्लोकमे 'बन्ध' शब्द भो आया है । असलियत यह है कि कर्मोंमे ही जो मन बुद्धि जम गई है उसका परिणाम यह होता है कि बन्धनसे छुटकारा मिलता है। कर्मसे हटके यकायक बन्धनपर जा पहुंचे और उसे खत्म किया ! कर्म और बन्धनके बीचमें कई सीढियाँ पडती है। योगवाले उन्हें फाँद जाते है ! कर्मका तो सबसे पहले तत्काल फल होता ही है जय-पराजय आदिके रूपमे । फिर उसके बाद दूसरा फल आता है जिसे पुण्य-पाप कहते है । तब कही जाके बन्धन आता है उन्ही पुण्य-पापोके फलस्वरूप । योगके चलते कर्म और बन्धनके बीचके इन दो फलो-दो सीढियोसे साबका पडता ही नही। उनसे कोई भी नाता नही होता-वह होते ही नहीं। फिर वन्धन यानी जन्ममरण कैसा ? साख्य या ज्ञानमे भी वन्धन तो होता नहीं। मगर वीचके दो फल होते है जरूर; हालाँकि आत्मासे उनका कोई भी नाता न होनेके कारण वे उसमे सटते नही। क्योकि कर्म ही जब उसमे सटता नही, है नही, तो उसके फल कैसे आयेगे ? विपरीत इसके योगमे कर्म आत्मामे आये और सटे तो क्या और न सटे तो क्या ? वहाँ इससे कोई मतलब हई नहीं। मगर चवाले फल नही सटते यह पक्का है । पहले पक्षमे पक्कापक्को कर्म ही नही सटता है और इसीसे ये फल नही सटते। मगर इस पक्षमे पक्कापक्की यही नही सटते है। फिर कर्म सटके भी क्या करेगा? दोनोका यही मौलिक भेद-बुनियादी फर्क- यहाँ साफ हो जाता है। व्यवसायात्मक बुद्धि अव एक ही बात इस योगके मुतल्लिक रह जाती है जिसका जिक्र "व्यवसायात्मिका" आदि ४१वे श्लोकमे है। उसीका स्पष्टीकरण आगेके ४२-४४ श्लोकोमे भी किया गया है, बल्कि प्रकारान्तरसे ४५-४६मे भी।