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अठारहवाँ अध्याय ८६६ उससे हिचके । इस तरह सारे गुड के गोवर हो जानेकी शका बनी रहेगी। ऐसे कामोको तो खामखा कोई भी पूजा माननेको जल्दी तैयार होगा ही नही । इसलिये फौरन ही ये बाते साफ कर दी गई है। निर्दयता और हिंसाकी दलीलका भी यही उत्तर दे दिया है कि सृष्टिके त्रिगुणात्मक होनेके कारण सर्वत्र ही बुराइयाँ रहती ही है । भले-बुरे सभी मिले-जुले है। क्या सॉस लेने और आरती-चन्दनमे हिंसा नही है ? फिर इस वाहियात बातमे क्या पडना ? श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् । स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥४७॥ सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् । सरिंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः ॥४८॥ दूसरेके धर्म या स्वाभाविक कर्मको अच्छी तरह या आसानीसे कर लेने पर भी उसकी अपेक्षा अपना अधूरा या दीखनेमें वुरा भी धर्म कही अच्छा है। (क्योकि) स्वभावके ही अनुसार निश्चित कर्मोके करने में (दरअसल) कोई पाप या बुराई नहीं होती। (इसीलिये) हे कौतेय, (देखनेमे) दोषयुक्त भी स्वाभाविक कर्म कभी न छोडे । क्योकि जैसे आग धुएंसे घिरी होती ही है वैसे ही सभी काम दोषसे घिरे ही (नजर आते) है ।४७।४८॥ इन श्लोकोमे एक तो “विगुण", "स्वनुप्ठितात्" तथा "सदोषम्" पदोके अर्थ जरा लम्बे चौडे है । दोषमे सभी तरहकी छोटी-बडी बुराइयाँ, हानियाँ और त्रुटियाँ आ जाती है, न कि सिर्फ हत्या वगैरह पापोसे यहाँ मतलब है । दूसरी बात यह भी है कि ऊपरसे देखनेमे ही ऐसा मालूम होनेसे यहाँ तात्पर्य है। क्योकि वाकई तो बुराई किसीमे भी नही है । सबके सब तो पूजा ही है । और अगर बुराई है तो सबोमे है । यह ठीक है कि किसीमे साफ दीखती है और किसीमे नही । बस, यही आशय है।