८६४ गीता-हृदय 1 ही तरह यह भी अनेक विलक्षण विभागोमे बँट जाता है और हरेक विभाग एक विलक्षण वर्ग या जातिके दार्शनिको और दिमागदारोके लिये काम दे देता है । दर्शन और चिन्तनका यह विभाग हरेक दूसरे पेशोके विभागकी ही तरह कुगलता एव विशेपज्ञताकी प्रगति करता है और समय भी बचाता है। इस तरह हरेक व्यक्ति अपने खास विभाग या उसकी शाखामें अधिक कुशल हो जाता है, सब मिलाके इस तरह काम भी ज्यादा होता है और विज्ञानके प्रसारमे प्रगति ज्यादा हो जाती है। ब्राह्मणक्षत्रियविशा शूद्राणा च परन्तप । कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुण. ॥४१॥ है परन्तप, स्वभावको बनानेवाले तीनो गुणोके (तारतम्यके) फल- म्वरूप ब्राह्मणो, क्षत्रियो, वैश्यो तथा शूद्रोके कर्म विल्कुल ही बँटे हुए है ।४१॥ शमो दमस्तप शौच क्षातिरार्जवमेव च। ज्ञान विज्ञानमास्तिक्य ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥४२॥ राम, दम, तप, पवित्रता, क्षमा, नम्रता या सिधाई, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता, (2) ब्राह्मणोके स्वाभाविक कर्म है। ।४२॥ आस्तिकताका अर्थ श्रद्धा है। शौर्य तेजो धृतिक्ष्यि युद्धे चाप्यपलायनम् । दानमीश्वरभावश्च क्षात्र कर्म स्वभावजम् ॥४३॥ गन्ता, दब्बूपनका न होना, धैर्य (यट, शासनादिम) कुशलता, बुरी न भागना, दान और नामनकी योग्यता, (ये) अत्रियोंके स्वाभाविक गर्न है। कृषिगौरक्ष्यवाणिज्य वैदयफर्म स्वभावजम् । परिचर्यात्मक कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥४४॥ -
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