अठारहवाँ अध्याय ८६३ है, वह कोई नई बात नही है। वर्णाश्रमधर्मोके विभागके मूलमे यही सिद्धान्त काम करता है। इससे ही समाजकी प्रगति पहलेके ऋषि-मुनि मानते थे। आश्चर्य है कि आधुनिक विज्ञान भी यही बात रूपान्तरमे मानता है। डाक्टर ऐडम स्मिथने अठारहवी सदीके उत्तरार्द्धमे जो एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक राजनीतिक अर्थशास्त्रके बारेमे लिखी है और जिसका नाम है "राष्ट्रोकी सम्पत्ति" (The Wealth of Nations by Dr. Adam Smith), उसके शुरूमे, पहले ही परिच्छेदमे, वह यही बात यो लिखते है- “In the progress of society philosophy or speculation becomes, like every other employment, the principal or sole trade and occupation of a particulat class of citizens Like every other employment, too, it is subdivided into a great number of different branches each of which affords occupation to a peculiar tribe or class of philoso- phers, and this subdivision or employment in philosophy as well as in every other business, improves dexterity, and saves time. Each indivi- dual becomes more expert in his own peculiar branch, more work is done upon the whole, and the quantity of science is considerably increased by it इसका आशय यह है, “समाजकी प्रगतिके सिलसिलेमे हरेक दूसरे कामोकी ही तरह दर्शन या मनन-चिन्तन भी नागरिकोके एक खास वर्गका मुख्य या सोलहो आना काम और पेशा वन जाता है । फिर दूसरे कामोकी "
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