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८८६ गीता-हृदय रूप कह दिया है । इसमे दो बाते कही गई है । एक यह कि सुख वही है कि जिसके अभ्यास या देरतकके या वार-वारके अनुभवमे ही उसमे मन रमता है। वह विजलीकी चमक, नीलकठका दर्शन या तीर्थके जलका स्पर्श नही है कि जरासे अनुभव या समर्गसे ही काम चल जाता है । ऐसा होनेसे तो सुखके बजाय दुख ही होता है । जवानपर हलवा रखके फौरन उठा ले तो सुख तो कुछ होगा नही, झल्लाहट और तकलीफ भले ही होगी। ऐसा भी होता है कि वहुतसी चीजोके प्रथम ससर्गसे कुछ मजा या सुख नहीं मिलता। किन्तु निरन्तरके अनुभव और ससर्गसे ही, प्रयोग और इस्तेमालसे ही उनमे मजा पाने- लगता है । जो लोग असभ्य है, जगली है उन्हें सभ्यताकी चीजोका चस्का लगाना होता है। पहले तो वे उलटे झल्लाते है । मगर धीरे-धीरे उनकी आवृत्ति और अभ्यास होते-होते मन उनमे रम जाता है। क्योकि मनके विना रमे तो मजा आता ही नहीं। यही वजह है कि सुख निरन्तर बना रहे, वह कमसे कम बार-बार मिलता रहे, सो भी अल्पसे अल्प विलम्वके वाद ही, इसी खयालसे लोग उसीकी हाय-धुनमे लगे रहते और बुरा-भला सबकुछ कर डालते है । कर्मको आत्मामे घुसेडनेका यह एक बहुत बड़ा कारण है। दूसरी वात है दु खके खात्मेको पा जाना, जिसे हमने दुखका भूल जाना लिखा है । सुखकी इच्छा अधिकाशमे कप्टोसे ऊबके ही तो होती है। लोग आराम चाहते ही है इसीलिये कि वेदना और पीडासे पिड छूटे । इसीलिये तकलीफ कम होते ही कहने लगते है कि पाराम हो रहा है। वीमार लोगोके बारेमें प्राय ऐसा कहा जाता है । इसीलिये हितोप- देशमे इसी रोगकी कमीके दृष्टान्तको ही लेके यहाँतक कह दिया है कि दुनियामे सुख तो हई नहीं, केवल दु ख ही है। इसीसे बीमारकी तकलीफ कम होनेपर उमे ही सुख कह देते है, "दु खमेवास्ति न सुख यस्मात्तदुप- लक्ष्यते । दुखार्तस्य प्रतीकारे सुखसज्ञा विधीयते"। मगर हमे इतने