८८४ गीता-हृदय यया स्वप्नं भयं शोकं विषाद सदमेव च । न विमुचति दुर्मेधा धृति. सा पार्थ तामसी ॥३५॥ हे पार्थ, योगसे जिसका सम्बन्ध कभी टूटनेवाला न हो ऐसी जिस धृति-विशेष प्रकारके यत्न-के वलसे मन, प्राण और इन्द्रियोकी क्रियाओको कावूमे रखते है वही सात्त्विकी धृति है । हे अर्जुन, हे पार्थ, जिस धृतिके वलसे कर्ममें प्रासक्त (एव) फलेच्छक (पुरुष) (केवल) धर्म, काम और अर्थकी ही बाते करता है वही राजसी है। जिस धृतिके वलसे आलस्य, डर, शोक, घबराहट, मद (इन सवो) को भ्रष्ट वुद्धिवाला (मनुष्य) छोड नही सकता वही तामसी मानी जाती है ।३३।३४।३५॥ कही-कही 'पार्थ तामसी'की जगह 'तामसी मता' पाठ है । शकरने यही पाठ माना है। हमने सम्मिलित अर्थ कर दिया है । क्योकि 'मता' शब्द न देनेपर भी उसका अर्थ तो यहाँ हई। उसके बिना तो काम चलता नहीं । यहाँ पहले श्लोकमे जो योग है उसका अर्थ कर्मोमे आसक्ति एव फलेच्छाका न होना यह पहले ही कह चुके है । इसका मूलाधार आत्म- दर्शन बता चुके है । सात्त्विक धृतिका आधार यही बाते है। इन्हीके बलसे मन, प्राण और इन्द्रियोको ईंटा देते और जरा भी डिगने नही देते, चाहे हजार बलायें प्रायें। ऐसी ही धृतिवाले मोक्षतकको ध्यानमे रखके ही कोई काम हिम्मतके साथ करते है। मगर राजसी धृतिवाले मोक्षको छोडके भटक जाते है । वे कर्मोंमे आसक्त एव फलेच्छाके गुलाम बन जाते है । जहाँ सात्त्विक धृतिवाले धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारोकी पर्वा रखके ही कुछ भी करते है, तहाँ राजस धृतिवाले मोक्षको भूल जाते और पूरे चतुर सासारिक बनके धर्म, अर्थ, काम तीनकी ही पर्वा रखते है । यही बात दूसरे श्लोकमे कही गई है। कामका अर्थ है वही आसक्ति और इच्छा। छोटीसी बातोसे लेकर स्वर्गतककी कामनाको ही काम कहते है। अर्थ कहते है धनको, सम्पत्तिको। सम्पत्तिके भीतर सभी पदार्थ . .
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