अठारहदाँ अध्याय ८८३ हमसे हो सकता है, साध्य है या नहीं। कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यके निश्चयके वाद भी साध्य-असाध्यका निश्चय जरूरी हो जाता है। क्योकि जो कर्त्तव्य हो वह जरूर ही साध्य हो. यह बात नहीं है। इसीलिये असाध्य काममे भी कर्त्तव्यताके निश्चयके बाद बिना सोचे-बूझे पड जाना ठीक नही है, नादानी है । बन्ध और मोक्ष तो प्रवृत्ति-निवृत्तिकी कसौटीके रूपमे ही लिखे गये है। जिसका चरम परिणाम बन्धन और जन्ममरण हो वही अकर्तव्य और जिसका मोक्ष हो वही कर्तव्य माना जाना चाहिये। प्रतएव ३१वें श्लोकमे न लिखे जानेपर भी इसे समझ लेना ही होगा। यही वजह है कि ३२वेमे कर्त्तव्य-अकर्त्तव्यको कहके एक ही साथ वाकियोके वारेमे कह दिया है कि जो सभी बाते उलटे ही समझे। सभी बातोमे वन्ध-मोक्ष, कार्य-अकार्य भी आ गये। इन तीनो श्लोकोका साराश यही है कि सात्त्विक बुद्धि सभी बाते ठीक-ठीक समझती है। वह मनुप्यका ठीक पथदर्शन करती है। मगर राजस वुद्धिमे किसी भी वातका ठीक-ठीक निश्चय हो पाता नही । न तो यथार्थ निश्चय और न उलटा। हर बातमे पशोपेश, दुविधा और घपला पाया जाता है, जिससे कर्ता किंकर्तव्यविमूढ हो जाता है । ऐन मौकेपर उसका उचित पथप्रदर्शन नही हो पाता । दोनोके विपरीत तामस बुद्धि हर बातमे उलटा ही निश्चय करती-कराती है और गलत रास्तेपर ही वराबर ले जाती है। इसमे न तो दुविधा होती है और न कभी यथार्थ निश्चय हो पाता है। धृत्या यया धारयते मनः प्राणेन्द्रियक्रियाः। योगेनाव्यभिचारिण्या धृति. सा पार्थ सात्त्विकी ॥३३॥ यया तु धर्मकानार्थान्धृत्या धारयतेऽर्जुन । प्रसंगेन फलाकांक्षी धृति. सा पार्थ राजसी ॥३४॥
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