सांख्य और योगमें अन्तर ८ वह टूटने न पाये। जबतक वह अध्यात्मदर्शन और तत्त्वज्ञानकी पूर्णताके फलस्वरूप बहुत बडी उँचाई (high plane) पर चला नही जाता, खामखा गड़बडी होगी और खतरा बराबर बना रहेगा कि कभी इधर और कभी उधर जाय। मनकी इसी दशाको-इसी उँचाईको-चौथे अध्यायके “गतसगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस (२३) श्लोकमे "ज्ञानावस्थित ता या ज्ञानावस्थित चित्त कहा है । वह ज्ञानमे डूब जाता है। तीसरे अध्यायके “यस्त्वात्मरतिरेव” श्लोकमे इसे ही "आत्मरति" और "आत्मतृप्त कहा है । जो अमृतमे डूबा है उसे शर्ब- तकी पर्वा क्यो हो ? यही बात यहाँ है । जो आत्मानन्दमे मस्त है, उर्स मे तृप्त है, उसीमे डूबा है वह इधर-उधर क्यो जाय ? फिर भी एक ओर-- सिर्फ कर्मकी ओर- जाना भी है । यही तो निरालापन है । गीतामे इस हालतका वर्णन बारवार आया है। यही ज्ञानकी असली अवस्था है और इसीकी मददसे मन कर्मके आगे-पीछे वाल भर भी नही बहकेगा। नही तो वही कट जायगा | यही योग है जिसमे आत्मज्ञान मददगार है। योगमे आत्मज्ञान निहायत जरूरी है और उसीके फलस्वरूप जो सिर्फ कर्मतक ही मन पहुँचने दिया जाता है इसी युक्ति, इसी हिकमत और इसी कलाकी आगे भी प्रशसा की गई है। दरअसल योगमे तीन चीजे है। एक तो कर्म है। दूसरी उसीतक मन या बुद्धिकी पहुंच और तीसरी चीजहै इसीके लिये जरूरी तथा आधारभूत आत्मदर्शन या आत्माका साक्षात्कार । इनमे कर्मके सिवाय शेष दोको ही एक साथ मिलाके योगके सम्बन्धकी बुद्धि, जानकारी या कला कहा गया है "बुद्धिर्योगेत्विमा शृणु" (२।३६) में। इन दोनोमे भी असली चीज वही आत्मज्ञान है । क्योकि उसीके वलपर, ऊँचे उठके मन कर्मसे आगे जा नही सकता है। इसीलिये "दूरेण ह्यवर कर्म" (२०४६) और "बुद्धियुक्तो जहातीह" (२०५०) श्लोकोमे कह दिया है कि “इस बुद्धि या जानके योग यानी सम्बन्धको
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