गीता-हृदय होगा। इसीलिये आगे इस करणका और भी विचार जरूरी नही माना गया। बुद्धि और धृत्ति या धैर्यका भी असर कर्मपर पड़ता है। ये जिस तरहकी हो कर्म भी वैसे ही सात्त्विकादि बन जाते है । कमसे कम उनके ऐसा होनेमे इन दोनोका असर पडता ही है । इन्द्रियोकीसी बात इनकी नही है कि इन्द्रियाँ चाहे कैसी भी हो और उनके करते काम पूरा या अधूरा भले ही रहे, फिर भी सात्त्विक, राजस या तामस नहीं हो सकता है ये दोनो तो कर्मपर उसके सात्त्विकादि बनने में ही बहुत बडा असर डालती है। पीछे इस निश्चयमे भी कि वह वाकई आत्मामे है या नहीं, इनका काफी असर पड़ता है। बुद्धिका तो यह सब काम हई, यह सभी जानते है। धृतिका भी यही काम है। जिसमे धैर्य या हिम्मत न हो वही दब्बू और डरपोक होनेके कारण दबाव पडनेपर अट-सट कर डालता है। कमजोर ही तो दबाव पडनेपर झूठा बयान देता है । हिम्मतवाला तो कभी ऐसा करता नही । इसलिये इस प्रसगमे इन दोनोका विचार भी उचित ही है। अव रह गया अकेला सुख, जिसका विविध विवेचन आगे आया है। वह उचित ही है । सुखके ही लिये तो सब कुछ करते हैं । स्वर्ग, धन पुत्रादिके ही लिये सारी क्रियायें की जाती है। लोगोकी जो धारणा है कि स्वय ही-हमी-भला-बुरा कर्म करते है वह है भी तो इसीलिये न, कि दूसरेके करनेसे दूसरेको सुख होगा कैसे ? यदि इस सुखकी फिक्र- जाये तो मनुष्यकी सारी विपदा और परीशानी ही कट जाये। तव तो वह रास्ता पकडके पार ही हो जाये । बुरे कर्म तथा दु ख तो सुखकी फिक्रके ही करते आ जाते है । सुखकी लालसाके मारे हम इतने परीशान और बेहाल रहते है कि बुरे-भलेकी तमीज उस हाय-हायमें रही नहीं जाती। फलत वुरेसे भी बुरे कर्म सुखके ही लिये कर बैठते है। चिन्ता छुट
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