८७६ गीता-हृदय 7 मगर जव वही आत्माके ससर्गके फलस्वरूप उसके आभास, उसके प्रकाशसे युक्त हो जाती है, जैसी कि आईनेकी चमक पडनेपर दीवार उतनी दूर तक चमक उठती तथा ज्यादा प्रकाशवाली बन जाती है जितनी दूर तक आईनेकी रोशनीका असर उसपर होता है, तो वही बुद्धि ज्ञाता और कर्ता दोनो ही कही जाती है। इसीलिये ज्ञाता और कर्ताको एक ही कहा है । अत- एव आगे सात्त्विक आदि रूपोका विचार करनेके समय कर्ताका ही विचार करके सन्तोष करेंगे। क्योकि कर्मकी दृप्टिसे ज्ञाता तथा कर्ता दोनोका एक ही असर कर्मपर माना जाता है । चाहे ज्ञाता सात्त्विक हो या कर्ता- और जव एक होगा तो दूसरा भी होईगा, क्योकि है तो दोनो एक ही- कर्म सात्त्विक ही होगा और उसकी सात्त्विकतामे कमी-बेशी न होगी, चाहे दोनोका नाम लें, या एकका । यहाँ कर्मका विचार और ही दृष्टिसे हो रहा है। इसीलिये दोनोका कहना जरूरी हो गया। जो जानता है वही करता भी है । जबतक हम यह न जान ले कि हल कैसे चलाया जाता है तबतक उसे चलायेंगे कैसे ? जबतक जान जाये नही कि कपडा कैसे बनता है, उसे बनायेंगे तबतक क्योकर ? इसी तरह ज्ञेय और कर्मकी भी बात है। पूर्वार्द्धके तीनमे जो ज्ञेय और उत्तरार्द्धके तीनमे जो कर्म आया है ये दोनो भी एक ही है। ज्ञेयका अर्थ ही है जिसका ज्ञान हो, जिसके बारेमे ज्ञान हो। कर्मका अर्थ है जो किया या वनाया जाय, जिसपर या जहाँ हाथ-पाँव चलें । पूर्वके ही दृष्टान्तमें हल या कपडेको लीजिये। पहले उनकी जानकारी होती है, ज्ञान होता है। पीछे उन्हीपर हाथ-पाँव आदि चलते है। फर्क इतना ही है कि हल पहलेसे ही मौजूद है और उसीपर क्रिया होती है। मगर कपडा मौजूद नही है। किन्तु सृत वगैरहपर ही क्रिया शुरू करके उसे तैयार करते है। वह क्रियाके ही सिलसिलेमें तैयार होता है। इसीलिये क्रियाका विपय, उसका आधार वह भी बन जाता है। मगर कपडा बुनना शुरू ,
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