अठारहवाँ अध्याय ८७५ ऐसा भी होता है कि स्वय कर्म न भी करे तो भी दूसरोसे करवा सकते है। इसे ही प्रेरणा कहते है । इसीको शास्त्रोमे चोदना कहा है। ऐसोको करनेवाले तो नही, लेकिन करानेवाले मानके ही अपराधी बताते है और दड देते है। हिंसा, चोरी आदिमे ऐसा होता है कि ललकारने या राय देनेवाले भी फँसते है और दड भोगते है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हमने न तो चोरी की, न उसमे राय-सलाह ही दी और न ललकारा ही। यह भी नही जानते कि कही चोरी हुई या नहीं। मगर यदि किसीसे शत्रुता हुई तो चुपकेसे चोरीका माल हमारे यहाँ रखके फंसा देता है । अकसर गैरकानूनी रिवाल्वर वगैरह चुपकेसे किसीके घरमे रखके फँसा देते है। यदि कर्मका प्रेरक ही आत्मा हो जाय, या वस्तुत कर्म उसीमे रहते हो, हर हालतमे उसे उनके फलोमे खामखा फंसना होगा। इसीलिये आगेके पूरे ग्यारह श्लोकोमे यह बताया है कि कर्मके प्रेरक भी दूसरे ही है और कर्म रहता भी अन्य ही जगह है । यहाँ कर्मचोदनाका अर्थ है कर्मके प्रेरक और कर्मसग्रहका अर्थ है जिनमे कर्म देखा जा सके-जिनके देखनेसे ही कर्मका पता लग सके। ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । करणं कर्म कर्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः ॥१८॥ ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञाता यही तीन कर्मोके प्रेरक है (और) करण (इन्द्रियादि साधन), कर्म (जो बने, जहाँ कुछ हो), कर्ता इन्ही तीनमे कर्मका संग्रह होता है ।१८॥ इस श्लोकमे ज्ञाता और कर्ताका एक ही अर्थ है। इन दोनोम केवल उपाधि या काम करनेके तरीकेका फर्क है। जव किसी बातकी जानकारी होती है तब वह ज्ञाता या जानकार कहा जाता है। जव जानकारी- के बाद काम करने लगता है तो वही कर्ता कहा जाता है । अकेली बुद्धि एक चीज है और उसे बुद्धि ही कहते है भी । उसका विवेचन आगे आयेगा।
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