८७४ गीता-हृदय हो जानेपर भी क्रिया नहीं होती। बुद्धिकी भी जरूरत हर काममें होती ही है। बिना जाने कुछ कर नही सकते । आखिरी श्लोकमे जो कुछ कहा गया है उसका आशय यही है कि जैसे दूसरेकी चोरीका माल अपने घरमे रखनेवाला नाहक अपराधी बनता है और परीशानीमे पडता है, ठीक वही हालत प्रात्माकी है। कर्मोके करनेवाले तो ठहरे शरीर आदि । मगर उनकी क्रियाको धोकेमें, भूलसे अपने भीतर माननेके कारण ही इस निर्लेप और निर्विकार आत्माको फँसना पडता है । पुत्रके साथ ज्यादा ममता होनेसे कभी कभी ऐसा होता है कि पुत्रकी मौतका निश्चय होते ही पिता उससे भी पहले एकाएक चल बसता है। शरीर दुवला और मोटा होनेसे आत्माको खयाल होता है कि हमी दुवले या मोटे है । यही है गैरके साथ एकता या तादात्म्य-तदा- त्मता-का अभिमान । इसे तादात्म्याध्यास भी कहते है। आत्माका गरीर, इन्द्रियादिके साथ तादात्म्याध्यास हो गया है। फलत उनके कामो एव गुणोको अपना माननेका स्वभाव इसका हो गया है। इसे ही मिटानेका अर्थ है अहकारका त्याग, 'हमी करते है' इस भावना और खयालका त्याग। लेकिन इसके होनेपर भी कर्ममे आसक्ति होनेपर, आग्रह हो जानेपर और फलकी भावना होनेपर भी फंस जाता है। यह है दूसरा खतरा और भारी खतरा । इसपर पूरा प्रकाश पहले डाला जा चुका है। आत्मा- का साक्षात्कार होनेके वाद अहकारवाला भाव मिट जानेपर भी यह खतरा बना रहता है। इसीलिये बुद्धिके लिप्त न होनेकी बात कहके इसी खतरेसे बचनेकी हिकमत सुझाई गई है। फिर तो पौ बारह समझिये । इस तरह एक प्रकारसे आत्माको कर्मसे निलिप्त और अलग बताके काम निकाल , लिया है। अव आगे दूसरे ढगसे भी आत्माका कर्मोसे अससर्ग सिद्ध करते है।
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