, अठारहवाँ अध्याय ८७३ यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते। हत्वापि स इमाल्लोकान हन्ति न निबध्यते ॥१७॥ हे महाबाहो, सभी कर्मोके पूरे होने के लिये साख्य सिद्धान्तमे बताये इन (आगे लिखे) पाँच कारणोको मुझसे जान लो। (वे है) आश्रय या शरीर, आत्माकी ससर्गवाली बुद्धि, जुदी-जुदी इन्द्रियाँ, प्राणोकी अनेक क्रियाएँ और पाँचवाँ प्रारब्ध कर्म । शरीर, वचन या मनसे मनुष्य जो भी कर्म-कायिक, वाचिक, मानसिक-शुरू करता है चाहे वह उचित हो या अनुचित, उसके यही पाँच कारण होते है। ऐसी दशामे अपरिपक्व समझ होनेके कारण निर्लेप आत्माको जो कोई कर्ता मानता है वह दुर्बुद्धि कुछ जानता ही नही । (इसलिये) जिसके भीतर 'हम करते है' ऐसा खयाल नही और जिसकी बुद्धि (कर्म या फलमे) लिप्त नही होती, वह इन सभी लोगोको मारके भी न तो मारता है और न (कर्मके फलस्वरूप) बन्धनमे फँसता है ।१३।१४।१५।१६।१७) कर्ताका अर्थ है कर्तृत्व का अभिमान जिसमे वस्तुगत्या रहे । दर- असल बुद्धिको ही कर्ता कहते है । मगर बिना आत्माके ससर्गके वह खुद जड होनेके कारण कुछ कर नही सकती। इसीलिये आत्माके ससर्ग या प्रतिविम्बसे युक्त बुद्धिको ही कर्ता कहते है। इसी प्रकार देवका अर्थ प्रारब्ध पहले ही कह चुके है। यह भी बता चुके है कि इसे दिव्य या दैव क्यो कहते है और यह क्यो कारण माना जाता है । यह भी जान लेना चाहिये कि कारण दो प्रकारके होते है-साधारण और असाधारण । साधारण उसे कहते है जो सबोको या अनेक कार्योको पैदा करे । प्रारब्ध ऐसा ही है। वह समस्त ससारका कारण हैं। किन्तु शरीर, बुद्धि, इन्द्रियाँ तथा प्राणकी क्रियाये या पाँच प्राण अलग-अलग कार्योके कारण है। इसीलिये ये असाधारण या विशेष कारण कहे जाते है । अपने-अपने शरीर आदिसे ही अपने-अपने कर्म होते है। प्राणोके निकल जानेपर या इन्द्रियोके खत्म
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