अठारहवाँ अध्याय ८६६ $ कर्ममात्रका ही त्याग करना चाहिये जैसे बुराईका त्याग किया जाता है । और चौथे दलवाले कहते है कि यज्ञ, दान और तप जैसे कर्मोको छोडना चाहिये ही नही ।२।३। यहाँ चार स्वतत्र मत बताये गये है और चारोका ताल्लुक त्यागसे ही है। अपना पाँचवाँ मत कृष्ण आगे बताते है । इनमे तीसरा ही मत ऐसा है जो कर्मोका त्याग हर हालतमे हमेशा मानता है और कहता है कि जैसे दोषका त्याग हमेशा हर हालतमे करते है वैसे ही कर्मका भी होना चाहिये । यहाँ 'दोषवत्'का अर्थ है दोषकी तरह ही । दोषवत्का अर्थ दोषवाला भी होता है। इस तरह यह अर्थ होगा कि कर्म तो दोष- वाला हई। इसीसे उसे छोड ही देना ठीक है। मगर कर्मका यह स्वरूपत त्याग सन्यास नही है यही गीताका मत है । वह मानती है कि ऐसा न करके केवल समाधिके पहले ही उसे त्यागनेको सन्यास कहते है । यही बात "सर्वधर्मान् परित्यज्य"मे आगे लिखी गई है। पूर्ण ज्ञानके परिपाकके हो जाने पर मस्तीकी दशामे भी कर्मोका त्याग स्वरूपत. हो जाता है ऐसा गीताका मान्य है, जैसा कि “यस्त्वात्मरतिरेव स्यात्” (३।१७) मे स्पष्ट है। मगर हर हालतमे कर्मोका त्याग न तो उसे मान्य है और न सभव, जैसा कि "नहि कश्चित्" (३।५)से स्पष्ट है । निश्चयं शृणु मे तत्र त्यागे भरतसत्तम । त्यागो हि पुरुषव्याघ्र त्रिविधः संप्रकीत्तितः ॥४॥ हे भरतश्रेष्ठ, हे पुरुषसिंह, उस त्यागके बारे में मेरा निश्चय भी सुन लो। क्योकि त्याग तीन तरहके होते है ।४। इस श्लोकके उत्तरार्द्धका यह भी आशय हो सकता है कि 'क्योकि त्यागके बारेमे तीन बाते कही जा सकनेके कारण वह तीन ढगसे जानने योग्य है' । इनमे पहली वात वह है जो पाँचवे श्लोकके पूर्वार्द्धमे आई है कि यज्ञ, दान, तपको न छोडके करना ही चाहिये । दूसरी उत्तरार्द्धमे
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