८६८ गीता-हृदय अर्जुनके शब्दोमें पहले आनेपर भी कृष्णके शब्दोमे वह पीछे पाया है। उसके वारेमें केवल यही बात विस्तारसे कहनेकी थी कि उसका मौका कब और कैसे आता है। यही उनने वताई भी है। वह अन्तिम चीज भी तो है। इसलिये अन्तमे ही उसे कहना उचित भी था। कुछ लोग नादानीसे कर्मोको हर हालतमे छोड देना ही सन्यास समझते है। उससे निराली ही चीज सन्यास है, यह भी बात सन्यासका तत्त्व बतानेसे मालूम हो गई है। नही तो मालूम हो न पाती। इसीलिये जो लोग सन्यासके सम्बन्धकी जिज्ञासा का उत्तर पहले ही मान लेते है वह मेरे जानते भूलते है। क्योकि उनके मनसे तो पीछे सन्यासका जिक्र निरर्थक हो जाता है । इसी अभिप्रायसे ही- अर्जुन उवाच सन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि देदितुम् । त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन ॥१॥ अर्जुनने कहा (कि) हे महावाहो, हे हृषीकेश, हे केशिनाशक, सन्यास और त्याग दोनो हीकी अलग-अलग हकीकत जानना चाहता हूँ।१। श्रीभगवानुवाच काम्याना कर्मणा न्यास सन्यास कवयो विदुः । सर्वकर्मफलत्याग प्राहुस्त्याग विचक्षणा. ॥२॥ त्याज्य दोषवदित्येके कर्म प्राहुर्मनीषिण. । यज्ञदानतप.कर्म न त्याज्यमिति चापरे ॥३॥ श्रीभगवानने कहा (कि) (कुछ) विद्वान सकाम कर्मोके त्यागको ही त्याग मानते है, (दूसरे) विवेकी जन सभी कर्मोके फलोंके त्यागको ही त्याग कहते है, कोई-कोई मनीषी-मननशील पुरुष-कहते है कि ,
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