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अठारहवाँ अध्याय ८६७ इनमे नई बात कौनसी आ गई है जिसके पीछे माथापच्ची की जाय ? यही वजह है कि अर्जुनने आरभमे प्रश्न भी नही किया। उसने तो केवल इच्छा जाहिर की। सो भी सन्यास या त्यागका न तो अर्थ ही जाननेके लिये है और न उनके लक्षण ही। दोनो शब्दोके अर्थ तो एक ही है यह पहले ही बता चुके है। यह भी दिखा चुके है प्रश्नके बाद दोनो शब्द यहाँ भी एक. ही अर्थमे प्रयुक्त हुए है। लक्षणकी भी बात नही है । क्योकि यहाँ लक्षण न कहके त्यागके बारेमे नाना मत ही बताये गये है । इसे लक्षण तो कहते नही । चार मतोके सिवाय कृष्णने जो अपना मत कहा है वह भी न तो नया है और न लक्षण ही है। किन्तु केवल कर्त्तव्यता- की बात ही उसमे है। असलमे ज्ञानके अलावे गीताकी तो दोई खास बाते है। उनमें एकको कर्मोंका सन्यास या स्वरूपत त्याग कहते है तथा दूसरेको साधारणत केवल 'त्याग' कहते है। मगर है ये दोनो कठिन तथा विवादग्रस्त । इसीलिये पहले बारबार इनका जिक्र आया है। सन्यासका तो पाया ही है । त्यागका भी “सग त्यक्त्वा धनजय” (२।४८), "त्यक्त्वा कर्मफलासग" (४।२०) "सग त्यक्त्वात्मशुद्धये" (५।११), "युक्त कर्मफल त्यक्त्वा” (५।१२) तथा अन्तमे "सर्वकर्मफलत्याग" (१२।११) आदिमे जिक्र आया है । इसलिये अन्तमे अर्जुन यही जानना चाहता है कि जब ये दोनो इतने विलक्षण है, गहन है और “कव- योऽप्यत्रमोहिता" (४११६) मे यह भी कहा गया है कि बडेसे बडे चोटीके विद्वान भी इनके बारेमे घपलेमे पड जाते है, तो इन दोनोकी अलग-अलग हकीकत, असलियत या तत्त्व क्या है। उसके कहनेका यही मतलब है कि इनके बारेमे जो भी विभिन्न विचार हो उन्हे जरा सफाई और विस्तारके साथ कह दीजिये, ताकि सभी बाते जान लूं । इसीलिये त्यागके ही वारेमे पहले पाँच तरहके विचार कृष्णने दिखाये है--चार दूसरोके और एक अपना । सन्यासके बारेमे तो ऐसे अनेक विचार है नही । इसीलिये . .