अठारहवाँ अध्याय पीछेके सत्रह अध्यायोमे ही गीताके सभी विषयोका आद्योपान्त निरूपण हो गया। अब कुछ भी कहना बाकी न रहा। इसीलिये कृष्णको भी स्वय आगे कुछ भी कहने की आवश्यकता नही प्रतीत हुई। इसीलिये अर्जुनके प्रश्नके उत्तरमे ही बची-खुची बाते कहते हुए, या यो कहिये कि कही हुई बातोको ही दुहराते एव शब्दान्तरसे उनका स्पष्टीकरण करते हुए, उनने सबोका उपसहार इस अध्यायमे किया। यदि गौरसे देखा जाय तो इस अध्यायमे न तो कोई नई बात ही कही गई है और न किसी बातको कोई ऐसा रूप ही दिया गया है जो पहले दिया गया न रहा हो, या जो बिलकुल ही नया हो । त्यागका ब्योरा, कर्ता, बुद्धि आदि की त्रिविधता, वर्णो के स्वाभाविक कर्म आदिमे एक भी बात नई नही है और न यहाँ किसीको नया रूप ही मिला है। या तो गीताके बाहर ही ये बाते प्रचलित रही है या, ऐसा न होने पर भी, गीतामे ही पहले आ गई है। जो लोग इससे पहलेके अध्यायोको ध्यानसे पढ गये है उन्हे बात साफ मालम होती है । त्यागके बारेमे कई मत कह देना यह गीताकी बात न भी हो तो कोई नई तो है नही । इसकी बुनियादी चीजे, जिन्हे फलेच्छा और आसक्ति का त्याग कहते है, पहले जाते. बीसियो वार कही जा चुकी है। सात्त्विकादि तीन विभाग तो चौदहवेमे और सत्रहवेमे भी आया ही है । कुछ चुने-चुनाये और भी दृष्टान्त देनेसे ही नवीनता आ जाती नही । आत्माका अकर्तृत्व और गुणोका कर्तृत्व भी पहले आई चुका है। सो भी अच्छी तरह । इस तरह प्रारभके चौवालीस श्लोको तक पहुँच 1 जाते है।
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८४५
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।