सत्रहवां अध्याय . वेद-गास्त्रके ज्ञाता है वह तो खामखा लम्बी चौडी विधि करेगे ही। किन्तु गीताको उनकी कुछ ज्यादा पर्वा है भी नहीं। जब ब्राह्मणो, वेदो तथा यज्ञोकी उत्पत्ति इन्ही तीन शब्दोका उच्चारण करके ही हुई तो फिर इसकी महत्ताका क्या कहना ? यज्ञादि कर्मोके आधार तो वेद और ब्राह्मण ही है और जब वही और खुद यज्ञ भी इन्ही शब्दोके उच्चारण-पूर्वक ही प्रकट हुए तव और वचता ही है क्या ? श्रद्धाके बाद और 'अश्रद्धयाहुत के पहले इन पाँच श्लोकोकी बातोका दूसरा मतलव होई नही सकता। शुरूसे ही शास्त्रविधिका प्रश्न उठा भी है। फिर भी इस अध्यायमे श्रद्धाकी ही प्रधानता है और वही इसका विषय भी है। इसीलिये श्रद्धाके बाद ही शास्त्रीय विधान पर अपनी दृष्टिसे प्रकाश डाल देना आवश्यक भी था। इसमे एक बात और भी है । ॐतत्सत्का उच्चारण और प्रयोग तो श्रद्धाके विना होई नहीं सकता। जिन्हे इसमे या ऐसे कर्मोमे पूरा विश्वास नही, निश्चय नही है वह भला ॐतत्सत्का नाम भी क्यो लेने जायेंगे ? इस तरह गीताने इस बहाने ही श्रद्धाकी भी जांच कर ली। नही तो इसके नाम पर प्रवचना और ठगीका होना आसान था। इससे यह भी होगा कि श्रद्धामे अगर जरा भी कोर-कसर होगी या वह पूरी न होगी, तो इस उच्चारणसे पूर्ण हो जायगी। क्योकि यह तो उसका राजमार्ग ही है । शुरूमे ही हमने जो कहा था कि श्रद्धा आसान नहीं है, वह सवमे पाई जाती है नही और उसका सपादन जरूरी है, वह जरूरत भी इससे पूरी होती है। इस तरह एक ही तीरमे कई शिकार हो जाते है। आगे जो यह लिखा है कि ॐ, तत् और सत् ये तीनो ब्रह्मके नाम तथा ब्रह्मवाचक शब्द माने जाते है उसमे तो खुद गीता ही साक्षी है । "अमित्ये- काक्षर ब्रह्म" (८।१३) तथा “प्रणव सर्व" (७८) मे ॐको ब्रह्म कही दिया है। इसी प्रकार "तव्यस्तदात्मान" (५।१७) आदिमे जिस
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