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गीता-हृदय विधिमे हीन भी। इनसे दो बाते जनक जाती है। एक तो यह कि शास्त्रीय विधि और अक्षा माथ चलती है, हालांकि अर्जुनका प्रश्न इससे विपरीत है। वह तो यही मानके हैं कि भान्जीय विधि न होके भी श्रद्धा हो सकती है। दूसरी यह कि तामस कर्मोम बना होती ही नरी । इगीचो दूसरे गन्दोमे माह गकते है कि तामनी बदा होनी ही नहीं। मगर यह भी पूक्के उग कयनके विपरीत है कि श्रद्धा तीन तरहकी होती है। दानकी भी यह हालत है कि न तो उसमे श्रद्धाका ही उल्लेख है और न विधिका ही । इमी तरह तपम भी जब सात्त्विपको श्रद्धापूर्वक कहके गंप दोमं चुप्पी मारते है तो यह मामला हो पाता है कि राजस और तामग तपगे श्रद्धा होती ही नहीं। विपरीत इसके जव तामस यज्ञको ही श्रद्धाके विना किया गया कहते है तो एकाएक विचार हो पाता है कि हो न हो सात्त्विक तथा गजम यज्ञोमे श्रद्धा जर होती है। मगर अगर वहां होती है तो तपमे भी क्यो नहीं, यह प्रश्न अनायास उठ सजा होता है । इस प्रकार सवोका विचार करनेसे अजीव घपला दोनता है, गडवड मालम पडती है। जब इसीके साथ 'ॐ तत्मदिति' (२३-२७) आदि पांच श्लोकोको इसके बाद ही पढते है तो यह सयाल होता है कि श्रद्धाके साथ ही 'ॐ तत्सत्' इस छोटेसे मनका उच्चारण भी हर कर्ममे जरूरी हो जाता है। इस तरह श्रद्धाको छातीपर गास्नीय विधि तामसा बैठी-बैठाईसी दीखती है। लेकिन तव तो अर्जुनके प्रश्नका उत्तर ठीक-ठीक मिलता नही। विपरीत इसके जव अाखिरो या २८वा श्लोक देराते है तो कुछ उलटी ही समा नजर आती है । वह तो वेलाग कहता है कि चाहे शास्त्रीय विधि हो या न हो । मगर यदि श्रद्धा न हो तो सब किया-कराया चौपट । इस प्रकार एक विचित्र गोलमालसा हो गया है और किसी बातकी सफाई मालूम पडती ही नहीं।