। सत्रहवाँ अध्याय ८५३ गुजर गया हो ऐसा, नीरस, दुर्गन्धयुक्त, वासी, जूठा और नापाक भोजन तामस लोगोको पसन्द आता है ।८।६।१०। अफलाकाक्षिभिर्यज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते । यष्टव्यमेवेति मनः समाधाय स सात्त्विकः ॥११॥ अभिसधाय तु फल दंभार्थमपि चैव यत् इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥१२॥ विधिहीनमसृष्टान्नं मत्रहीनमदक्षिणम् । श्रद्धाविरहितं यज्ञ तामसं परिचक्षते ॥१३॥ फलकी आकाक्षा न रखनेवाले लोग शास्त्रीय विधिके अनुकूल जो यज्ञ 'हमारा यह कर्तव्य है' इसी विचारसे मनको निश्चल और एकाग्र करके करते है वही सात्त्विक यज्ञ है । हे भरतश्रेष्ठ, जो यज्ञ फलेच्छा रखके और दिखानेके लिये भी किया जाता है उस यज्ञको राजस जानो। मास्त्रीय विधिसे रहित, अन्नदानशून्य, विना मत्र (और) विना दक्षिणाके ही तथा श्रद्धाके विना ही किये गये यनको तामस कहते है ।११।१२।१३। देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनं शौचमार्जवम् । ब्रह्मचर्यमहिंसा च शारीरं तप उच्यते ॥१४॥ अनुद्वेगकर वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत् । स्वाध्यायाभ्यसनं चंच वाड्मयं तप उच्यते ॥१५॥ मनःप्रसादः सौम्यत्वं मौनमात्मविनिग्रहः । भावसशुद्धिरित्येतत्तपो मानसमुच्यते ॥१६॥ देवता, ब्राह्मण, गुरु, विद्वान् इन सबोकी सत्कार-पूजा, पवित्रता, नत्रता, ब्रह्मचर्य और अहिंसा (यही) गरीरका तप कहा जाता है। किसी- को न भनेवाला, सत्य, प्रिय और हितमाधक वचन (बोलना) और मद्गारोक्त अन्मान (यही) जवानकी तपस्या है। मनकी निर्मलता,
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