सत्रहवाँ अध्याय ८५१ सात्त्विक जन देवताओका यजन-पूजन करते है, राजस लोग यक्ष- राक्षसोका और शेष तामस लोग प्रेतो तथा भूतगणोकी यज्ञपूजा करते है। शास्त्रोमे विहित न हो ऐसे तपको दभ, अहकारसे युक्त और काम, राग, बलवाले जो लोग करते है (और इस तरह) शरीरके भीतर रहनेवाले पदार्थ समूहको और अन्त करणमे रहनेवाले मुझ आत्माको भी कमजोर करते रहते है, उन्हे आसुरी निश्चयवाले ही समझो ।४।५।६। यहाँ पहले तो ऐसे लोगोके तीन भेद बताये गये है और उनकी पहचान दी गई है। देवसे अभिप्राय है सात्विक दिव्यशक्तियोसे ही, न कि साधारण देवताओंसे । क्योकि दे तो राजस और तामस ही हुआ करते है । “एको देव सर्वभूतेषु गूढ' (श्वेता० ६।११), "ये पूर्व देवा ऋषयश्च तद्विदु" (श्वेता० ५।६) तथा “एष देवो विश्वकर्मा" (श्वेता० ४।१७) आदिमे भगवान, विष्णु, विद्वान आदिको ही देव कहा है । यही उचित भी है । साधारण देवतामोके पूजक तो स्वर्गादि चाहते है और सत्त्वका काम है ज्ञान। इसीलिये यक्ष, राक्षसका अर्थ वैसे ही देव- ताप्रोसे है। जो तामसी देवता है उन्हीको प्रेत-भूतके नामसे गिनाया है। वे हजारो है और उन्हे जनसाधारण खूब मानते-जानते है। इसीलिये उनके गणका उल्लेख किया है। बाकियोके गण या समूह होनेपर भी वे उतने परिचित नहीं है। मगर भूत-प्रेत तो घर-घर जुदे-जुदे है । जोई मर गये या गुजर गये उन्हीको भूत-प्रेत कहते है । शब्दार्थ भी यही है । यहाँ पाँचवे और छठे श्लोकोमे जो कुछ कहा है वह यद्यपि शास्त्रीय विधिसे वाहरवालोके ही कर्म है, तथापि उनसे मतलब श्रद्धाशून्य कर्मोसे ही है । दिखावटी या अहकारपूर्वक किये गये कर्म तो सदा श्रद्धाशून्य हुआ ही करते है। इसी तरह काम, राग या बलपूर्वक भी जो कुछ किया जाता है वह भी श्रद्धाशून्य ही होता है। श्रद्धाकी वहाँ गुजर कहाँ पहुँच कहाँ ? इसीलिये तो आत्मा, इन्द्रियो तथा रक्तमासादिके कृश ?
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