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सत्रहवाँ अध्याय ८४६ अटल विश्वास कहते है, उसके ऊपर यदि कर्म-अकर्मकी निर्भरता हो तो यह वात समझमे आती है। यही उचित भी है। इसीका दूसरा नाम श्रद्धा है। लेकिन अगर किसीने श्रद्धाके साथ कर्म तो किया, फिर भी शास्त्रीय विधिविधान नही जानता है, तो उसकी क्या गति होगी, यह प्रश्न स्वाभाविक था। उसने समझा कि वह तो कहीका न रहेगा, जैसा कि अभी कहा है। मगर यह तो ठीक नही जॅचता । निप्ठा, गति या हालत एक ही बात है और घवराके यही जाननेके लिये-- ? अर्जुन उवाच ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः । तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥१॥ अर्जुनने पूछा (कि) हे कृष्ण, जो लोग शास्त्रीय विधिकी पाबन्दी न करके श्रद्धाके साथ यज्ञादि क्रिया करते है उनकी क्या हालत है ? (उनकी गिनती किस श्रेणीमे है ? ) सत्त्व, रज या तममे ?।१। असलमे तीन गुणोके बाहर तो कोई जा सकता नही। इसीलिये स्वभावत अर्जुनने पूछा कि वे लोग सात्त्विक होगे या राजस या तामस कृष्णने उत्तर भी वैसा ही दे दिया कि जैसी श्रद्धा होगी वैसे ही वे लोग होगे, चाहे शास्त्रीय विधिकी पावन्दी करे या न करे । असलमे उनके कहनेका आशय यही है कि शास्त्रीय पावन्दी न रखनेसे नीचेसे ऊपरतक अराजकता हो जायगी और सब गडवड-घोटालेमे पड जायगा। इसलिये कोई व्यवस्था तो चाहिये ही और वह हो सकती है केवल शास्त्रीय विधि ही। दूसरेकी तो सभावना हई नही । यदि योही श्रद्धाके नामपर छोड़ दिया जाय तो लाखोमे शायद ही एकाध ठीक-ठीक उसके अनुसार करे । मेष तो अन्धाधुन्धी ही मचा देगे। यदि दुनियामे ईमानदारी और सचाई ५४