सत्रहवाँ अध्याय ८४७ उसे पढे विना इसके पढनेमे न तो मजा आयेगा और न यह बात ठीक-ठीक समझी ही जा सकेगी। यह श्रद्धा तीन प्रकारकी मानी गई है। क्योकि श्रद्धा तो मनुप्यमे ही होती है और उसके हरेक गुण होते है तीनो गुणोके आधारपर बनी उसकी प्रकृतिके ही अनुसार । यह बात भी अच्छी तरह प्रतिपादित हो चुकी है। यही वजह है कि श्रद्धा भी तीन प्रकारकी होती ही है । इसीलिये उसी श्रद्धाके अनुसार किये गये सभी कर्मोंका भी तीन प्रकारका हो जाना जरूरी है। इसी दृप्टिसे नमूनेके रूपमे ही भोजन, यज्ञ, तप, दानका वर्णन भी आ गया है। असलमे भोजनका ताल्लुक तो सीधे श्रद्धासे है नही । हाँ, गुणोसे तो हई। यह बात भी है कि जैसा भोजन होता है वैसा ही स्वभाव भी होता है। इस तरह भोजनका सम्वन्ध सभी चीजोसे मूल रूपमे हो जाता है। श्रद्धा भी इसीलिये भोजनके साथ घनिष्ठताके साथ जुट जाती है। इसीलिये पहले भोजनका ही विवरण देके उसके वाद तीन प्रमुख कर्मोका विवरण दिया है। श्रद्धाके विना जो कुछ भी किया जाता है वह गीताके दायरेके बाहर की चीज है । इसीलिये गीता उसे पूछतीतक नही। वह गीताकी गिनतीमे हई नहीं। वह तो न यहाँका है, न वहाँका । वह तो "धोबीका कुत्ता न घरका है, न घाटका"। इसी- लिये गीताने इस अध्यायके अन्तमे उसे अमत्, व्यर्थ, रद्दी कहके एक प्रकारसे धिक्कारा है। तपमे एक बात और भी आ गई है। वह कायिक, वाचिक, मानसिक रूपमे तीन प्रकारका होता है। फिर हरेकके तीन-तीन प्रकार, श्रद्धाके भेदसे कहिये, गुणके भेदसे कहिये, होनेसे तपके नौ प्रकार हो गये है। इसका प्रमग भी सोलहवे अध्यायके अन्तवाले दो श्लोकोने ला दिया है। वहाँ तो सीधा प्रमग था काम, क्रोध एव लोभके ही मिटानेका । मगर वह तो निचोड ठहरे उन समूची सम्पत्तियोके ही जो समाजके लिये 3
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