सत्रहवाँ अध्याय गीतामे श्रद्धाकी वात पहले वहुत बार आ चुकी है। किसी भी कामकी सफलताके लिये उसे बुनियादी तौरपर जरूरी माना गया है। "श्रद्धावन्तोऽनस्यन्त" (३।३१), "श्रद्धावांल्लभते ज्ञान" (४।३६), "अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च" (४१४०), "अयति श्रद्धयोपेत " (६।३७), "श्रद्धा- वान्भजते" (६।४७), "श्रद्धयाचितुमिच्छति", "श्रद्धा तामेव", "स तया श्रद्धया युक्त” (७।२१-२२), "अश्रद्दधाना परषा" (९३३) तथा "येप्यन्यदेवताभक्ता" (६।२३) आदिमे सभी प्रकारकी सफलताके लिये यह श्रद्धा आवश्यक मानी गई है। हमने जगह-जगह यह बात स्पष्ट भी कर दी है । फिर भी दार्शनिक ढगसे उसका विवेचन और विश्लेषण अभीतक नहीं हो पाया है और है यह निहायत जरूरी बात । ऐसी मौलिक वात योही एक श्रद्धा शब्दसे या इसीके सूचक किसी और शब्दसे ही कह दी जाय, यह तो अत्यन्त नाकाफी है। इस बातका तो पूरा विवरण होना चाहिये। इसकी सारी भीतरी बातें खल जानी चाहियें। जैसे सोलहवें अध्यायमें यम-नियमोका हीर निकालके रख दिया गया है और उस सम्बन्धकी सारी बातोका नग्न चित्र खीचा गया है, उससे कम जरूरत इस वातकी नही है। प्रत्युत सोलहवेमे तो अन्ततोगत्वा निषेधात्मक वात ही कही गई परन्तु यह है विधानात्मक । इसीलिये इसकी कठिनता तथा उपयोगिता स्वयसिद्ध है। ऐसी दशामे इसका विश्लेषण और भी ज्यादा होना चाहिये और यही बात सत्रहढे अध्यायमें की गई है। गीताधर्मसे इसका कितना गहरा एव बुनियादी ताल्लुक है और इस निरूपणका असली आशय क्या है यह बात हमने खूब विस्तारके साथ पहले ही बता दी है। ?
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