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सोलहवाँ अध्याय ८३६ सत्त्वकी शुद्धिका अर्थ है मन और बुद्धिकी निर्मलता । वह तभी होती है जब सत्त्वगुण खूब वृद्धि पर होता है और रज, तमको अच्छी तरह दबाये रहता है । इसीलिये सत्त्व शब्दका प्राय प्रयोग अन्त करणके मानीमें होता है। क्योकि वह तो सत्त्व-प्रधान होता ही है । सशुद्धिमे सत्त्वकी वह प्रधानता और भी काफी बढ जाती और जम जाती है। ज्ञान एव योग दो चीजे है। ज्ञानका अर्थ है पढ-लिख या सुनके जानकारी । योगका अर्थ है उसी पर अमल । दंभो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च । अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् ॥४॥ हे पार्थ, दिखावटी बात, फलके कुप्पा हो जाना, घमड, क्रोध, कटुवचन और अज्ञान--(यही) आसुरी सपत्तिवालोमे पाये जाते है ।४। दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता। मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पांडव ॥५॥ दैवी सपत्ति जन्म-मरणसे छुटकारा दिलाती है और आसुरी बन्धनमे डालती है ऐसा माना जाता है। हे पाडव, चिन्ता मत करो, तुम देवी सपत्तिवाले ही हो ।५। द्वौ भूतसगा लोकेऽस्मिन्दैव प्रासुर एव च । देवो विस्तरशः प्रोक्त प्रासुरं पार्थ मे शृणु ॥६॥ हे पार्थ, पदार्थोकी (और इसीलिये प्राणियोकी भी) सृष्टि दोई प्रकारकी है-देव और असुर । इनमे दैवी प्रकृतिवालोको तो विस्तारसे कही चुके है । (अव) असुरोंको भी मुझसे सुन लो ।६। "द्वया ह प्राजापत्या देवाश्चासुराश्च" (वृहदा० १।३।१) के अनुसार सृष्टिके दोई विभाग माने गये है। इनमें दैव या दैवी प्रकृतिवालोका तो स्थितप्रज्ञ, भक्त, गुणातीत तथा अन्य अनेक रूपोमे पहले वर्णन आया ही - 60