गीता-हृदय - इन्हीके आईने में अगर पहलेवाले २१ और यहाँके २७को देखें तो साफ पता चलेगा कि वे यही दस है, वे नामान्तरसे इन्हीका स्पष्टीकरण मात्र है। इस सिलसिलेमे एक बात और भी ध्यान देनेकी है। पुराने लोगोने प्राय कहा है कि इन यम-नियमोमें भी यमोको तो कभी छोड नही सकते। उन्हे तो सदा करना ही होगा। हाँ, नियमोको ज्ञानके वाद छोड सकते है, छोड दे, “यमानभीक्ष्ण सेवेत नियमान्मत्परस्त्यजेत्” (भागवत ११॥ १०१५) । पतजलिने भी यमोके बारेमें लिखा है कि इनके पालनके लिये किसी खास देश, विशेष जाति, वश, कूल, निश्चित समय या कारण जरूरी नहीं है कि उन सवोंके पूरा न होने या न रहने पर ये यम छोड दिये जायें । ये तो महाव्रत है और इन्हे हर हालतमे सव देश-कालमें सभी आदमियो- को करते ही रहना होगा, “जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम्" (२।३१) । असलमे इन यमोका दूसरोसे, समाजसे सम्बन्ध होता है। यह बात नहीं है कि इन्हे जो पालन करे, जो इनपर अमल करे उसीका ताल्लुक और हिताहित इनसे होता है । यही कारण है कि इन्हे समाज-हित-साधनके खयालसे ही, या यो कहिये कि समाजकी बुनियाद समझके ही निरन्तर करना जरूरी हो जाता है । इसी दृष्टिसे इनका महत्त्व ज्यादा है। महाव्रत भी इन्हे कहनेका यही अभिप्राय है। विपरीत इसके नियमोको व्रत ही माना है। उनके देखनेसे ही साफ मालूम हो जाता है कि उनका ताल्लुक केवल उसी व्यक्तिसे है जो उनपर अमल करे। इसीलिये अपनी जरूरत न रहने पर उन्हें वह छोड भी दे सकता है, छोड भी देता है। सोलहवें अध्यायमे जो कुछ कहा गया है वह इन्हीं यमोके इसी पहलूपर पूर्ण प्रकाश डाल देता है । वेशक, शुरूके श्लोकोमें विधानात्मक बातें गिनाई गई है। इस तरह पूरेतीन श्लोकोको उनने ही ले लिया है । विपरीत इसके एक ही-चौथे- -
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