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पन्द्रहवाँ अध्याय ८२७ उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुंजानं वा गुणान्वितम् । विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥ यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् । यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥ मरणोपरान्त प्रयाण करते हुए, नया शरीर धारण करके उसमे स्थित या इन्द्रियादिके साथ विषयोको भोगते हुए भी इस आत्मतत्त्वको अज्ञानी नही देख पाते, (किन्तु) ज्ञान दृष्टिवाले ही देखते है । (जिन्हें यह दृष्टि न भी प्राप्त हुई है ऐसे) योगी भी (समाधि आदिके रूपमे) यत्न करते हुए इस आत्माकी झॉकी अपने भीतर ही पा जाते है । (मगर) जिनके मन मलिन है ऐसे मूढ लोग हजार यत्न करके भी नहीं देख पाते हैं।१०।११। अन्तिम श्लोकमे यह बता दिया है कि आत्मदर्शनके लिये कोई भी यत्न करनेके पूर्व मनपर काबू होना चाहिये और इन्द्रियो पर नियत्रण । नहीं तो “मन न रगायो तू रगायो योगी कपडा" वाली बात होती है। इसीका जिक्र इसमे है। पत्नके बारेमे अव प्रश्न होता है कि वह किस तरह किया जाय समाधिवाला यत्न तो सबके लिये सुलभ है नही और उसके लिये भी तो पहले तैयारी चाहिये । तो आखिर वह है कौनसी ? और जो लोग ऐसे नही है वह भी कैसे इस आत्माको देख पायेगे ? आत्माको भी तो आखिरमे परमात्माके रूपमे ही देखना है न ? सो कैसे होगा को आत्माका रूप कैसे जानेगे ? इन्ही बातोको समझानेके लिये आगेके चार (१२-१५) श्लोक है। इनमे ऊपरसे ही शुरू करके धीरेधीरे शरीर और अन्त करणके भीतर घुसने तथा आत्मवस्तुके देखनेकी रीति कही गई है। परमात्मा तो अत्यन्त ? ? परमात्मा-