८२६ गीता-हृदय रहनेके समय पाई जाती है। उस समय इनसे विषयोका भोग तो करना है नही। फलत उनकी सूक्ष्म या वीज रूपी अवस्था ही उस समय रहती है, न कि ऐसी प्रकट और चलवलवाली। यही वात जाननेके लिये उन्हे "प्रकृतिस्थ"--"प्रकृतिमे रहनेवाली" कहा है । इसका तात्पर्य यह है कि उस समय वे अपने सूक्ष्म या बीज रूपमे ही रहती है । यही कारण है कि प्रात्माका अधिष्ठातृत्व उस समय नहीं हो पाता है। जैसे इमलीमें नमक डालनेसे उसमे रहनेवाली खटाईका पता जवानसे नही चल पाता, वही बात उस समय इन्द्रियोकी भी होती है। प्रात्माका सम्बन्ध रहते हुए भी वह उन्हे विपयोमे प्रेरित कर नही सकती । इसीलिये उसकी अधिष्ठातृता मुर्दा या वेकारसी हो जाती है। मगर स्थूल शरीरमें आने पर वह वात चालू हो जाती है और स्थितिम परिवर्तन हो जाता है । इसी परिवर्तनकी सूचना नवे श्लोकका 'अधिष्ठाय' पद देता है। . इस पर यदि कोई कह बैठे कि ऐसा मालूम तो किसीको होता नही, फिर यह बात मानी कैसे जाय ? तो इसीके उत्तरमे अगले दो श्लोक आये है और आगे उन्हीका विस्तार किया गया है । मोटी बात यह है कि यदि अन्धे सूर्यको नही देखते तो क्या वह गायव हो जायगा ? देखना तो आखिर आँखवालोका ही काम है न ? यहाँ भी ज्ञान-दृष्टि और विवेक-शक्ति जिनके पास है वह जरूर देखते है । हाँ, जिनके पास यह चीज नही है वह नहीं देखते । मगर इसमे दोष उनका है, न कि वस्तु का। यदि ऐसे देखनेवाले कम है तो इससे क्या एक आँखवाला हजार और लाख अन्धोके मुकाविलेमें किसी चीजको ठीक बता सकता है । उसकी ही बात मानी भी जाती है। आखिर वीमारीका अस्तित्व केवल डाक्टरकी ही बातोंसे माना जाता है, न कि लाखो दूसरोके न बतानेसे उसका इनकार हो जाता है। ?
पृष्ठ:गीता-हृदय.djvu/८०६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।