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८२४ गीता-हृदय मनश्चाय (और) जहाँ जानेपर फिर वापिस नही आते वही मेरा परम धाम है । ममैवाशो जीवलोके जीवभूत सनातनः । मन षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति ॥७॥ शरीर यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर. । गृहीत्वैतानि सयाति वायुर्गन्धानिवाशयात् ।।८।। श्रोत्र चक्षु स्पर्शन च रसनं घ्राणमेव च । अधिष्ठाय विषयानुपसेवते ॥६॥ मर्त्यलोकमे मेरा ही सनातन अश जीव बनके प्रकृतिमे रहनेवाली मन- सयुक्त छे इन्द्रियोको साथ खीच ले जाता है। जब (नया) शरीर धारण करता है और जव मरता है, इन इन्द्रियोको वैसे ही साथ ले जाता है जैसे हवा गन्धके आश्रय (पुष्पादि) से गन्ध ले जाती है । श्रोत्र, चक्षु, त्वक, रसना, घ्राण और मन (इन्ही छे इन्द्रियो) का अधिष्ठाता बनके विषयोका सेवन करता है ७।८।६। पाँचवें श्लोकमे ज्ञानके कुछ साधनोका वर्णन कर दिया है। अगर कोई यह प्रश्न करे कि यह कब सभव है कि ससारमे लिपटा हुआ जीव ब्रह्मरूप हो जाय, तो उसीका उत्तर सातवेंमे यह दिया है कि वह तो ब्रह्मका ही रूप है । प्रश कहनेका तात्पर्य हिस्सा या भागसे नही है। क्योकि निरवयव और निर्विकार ब्रह्मका भाग या चीड-फाड कैसे हो सकती है ? जैसे एक लोटा पानी घडेभर पानीका अश होनेसे उसीका रूप है वैसे ही जीव भी ब्रह्मका रूप है, इतना ही तात्पर्य है । सौ आईने रखके एक ही चन्द्रमाके सौ प्रतिबिम्ब या सौ चन्द्रमा देख लीजिये। यही दशा जीवकी है । अन्त करण आईनेकी तरह है जिसमे ब्रह्मका प्रतिविम्ब जीव बना है। बिम्बरूप चन्द्रमा, जो आकाशमें है, प्रतिबिम्बसे न तो भिन्न है और न जरा भी दोनोके बीच फर्क है। ठीक इसी तरह प्रतिबिम्ब रूप जीव