पन्द्रहवां अध्याय दु ख उनने माने है। उनके मतसे यह ससार दु खात्मक, हैं और इन्हीका ध्वस मुक्ति है । मगर यहाँ तो उलटी ही गगा वहती नजर आती है। सभी लोग फूले मस्त है, राजपाट, बालबच्चो और स्वर्ग-वैकुठके ही पीछे मस्त है। उन्हे तो ससार की दु खरूपता दीखती ही नही। फिर इससे . पार जानेका यत्न वे क्यो करने लगे ? प्रश्न है कि ऐसा हुआ क्यो ? बात तो उलटी है न ? कष्टात्मक ही तो यह ससार है । तब यह ऐसा हुआ कैसे ? इसके ऐवोको किसने छिपाया ? इसका उत्तर गीता पहले ही श्लोकके उत्तरार्द्धमे देती है कि वैदिक कर्मकाडने ही तो आँखोमे धूल झोक दी है। दिनरात उसीके पीछे पडे रहते है और फुर्सत मिलती ही नही | जही-तही वैदिक साहित्यमे, वेद- मत्रोमे स्त्री-पुत्रादिकी प्रशसा, स्वर्गकी बडाई, राजपाटकी महिमा लिखी मिलती है । फलत जनसाधारण यदि कभी ऊबे भी तो पुनरपि इसी वजहसे उसीमे पडे रहते है। जैसे वृक्षके हरे-भरे पत्ते उसे छेके और घेरे रहते है। इसीलिये उसके तने और शाखा-प्रशाखाओकी नग्नता दूरसे मालूम नही होती। किन्तु ज्योही पत्ते हटे कि समूचा पेड नग-धडग, वेढगा और भयावना नजर आता है। ठीक वैसे ही वैदिक मत्रो और तन्मूलक साहित्यने इस अश्वत्थके लिये भी पत्तेका काम कर दिया है, जिससे हम इसकी भयावनी सूरत देख नही पाते। इस तरह हम देखते है कि ज्ञानकी ओर बढनेमे गीताका यह वर्णन कितना आलकारिक एव महत्त्वपूर्ण सहायक है, खासकर ऐसा कहके कि जो इसके नग्नरूपको जानता है दरअसल वही वेदका ज्ञाता है। वह पर्देके भीतर घुस जो जाता है। पीपलमे यह भी देखा जाता है कि ऊपरसे बरोहे निकलती है। ये है दरअसल जडे ही। पकडी, बरगद और पीपलमे ही ये ऊपरकी डालोसे निकलके नीचे लटकती है। वरोहके मानी है ऊपरसे निकलनेवाली।
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