गीता-हृदय प्रथा है। पीपलको ही अश्वत्य भी कहते है। उधर उपनिपदोमे इस समारको ही अश्वत्थवृक्षफे रूपमे लिखा है। इसकी जड, पत्ते प्रादि भी बताये गये है। कठोपनिपदके द्वितीय अध्यायकी छठी बरलीका पहला ही मत्र यो है, "ऊर्ध्वमलोऽवाक् मास एषोऽश्वत्थ मनातन । तदेव शुक्र तद्ब्रह्म तदैवामृतमश्नुते" । गीताके पन्द्रहवे अध्यायका पहला श्लोक इसके पूर्वाद्धमे विल्कुल ही मिलतासा है। उपनिपदने कहा है कि इस अश्वत्थकी जड ऊपर और गासाये नीचे है और यह सनातन है, अनादि है। यह कब बना कोई कह नहीं सकता । मगर जिसे अविनाशी ब्रह्म कहते है और मोक्षावस्थाम जिसकी प्राप्ति होती है वह इससे जुदा नहीं है। इसके मूलमे वही है । गीताने सनातनकी जगह 'अव्यय' कह दिया है। मगर भागय वही है । इस प्रकार वासुदेव या ब्रह्मस्पमे इस जगत्को मानने तथा देसनेकी जो पुरानी प्रणाली है वह गीताके मतके अनुकूल ही है। इसीलिये उसीका श्रीगणेग इस अध्यायमे किया है। हम इस मसारको सचमुच ही मजबूत और सनातन न मान बैठे, इसीलिये अश्वत्थ नाम दिया गया है। अश्वत्थका तो अर्थ ही है कि जो कल न रहे । यह तो सदा परिवर्तनशील है, कमजोर है और प्रात्मज्ञानसे इसका खात्मा पलक मारते हो जाता है। आज ज्ञान हो और कल ही यह यह है भी तो भयानक ही। इसमे तो कष्ट ही कष्ट है। इसी- लिये तो योगदर्शनमे पतजलिने कहा है कि अथसे इतितक यह केवल दुखमय ही है ऐसा विवेकी मानते है। साफ ही देखते है कि यहाँ तीनो गुणोकी ऐसी आपमी कुश्ती और खीचतान है कि कुछ पूछिये मत, "परिणामताप- सस्कार दु खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु खमेव सर्व विवेकिन "(२०१५) । नया- यिकोने भी ससारको दु खात्मक ही माना है। यहांतक कि सुखको भी दुख ही कहा है। उनके मतसे छे इन्द्रियाँ-पाँच ज्ञानेन्द्रियां और मन--- उनके छे विषय-ज्ञान और छे विपय, शरीर, सुख और दु ख यही इक्कीस लापता
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