पन्द्रहवाँ अध्याय ८१७ क्योकि एके बाद दीगरे बहुतसे पर्दे उसपर पडे है । मगर इसमे कुछ खतरे भी है। हमारा खयाल इससे सकुचित हो जा सकता है और हम बाहरी दुनियाकी पर्वा, उसके सुख-दु खकी फिक्र छोड दे सकते है, जो बात गीताको आमतौरसे पसन्द नही है । इसीके साथ यह भी हो सकता है कि हम दुनियासे ऊँचे उठे ही न । हम तो अपनी आत्माके अन्वेषणमे नीचे ही जायँगे न ? भीतर ही घुसेगे न ? गुफामे ढूँढना जो है । मगर दुनियाका मजा लेने और जीवनको आनन्दमय बनानेके लिये इस बातकी जरूरत है कि हम उससे ऊँचे उठे, ऊपर जाये । समूचे ससारको फांदके जब ऊपर जा पहुंचे तभी मस्ती आ सकती है । डर था, शायद यह बात न हो सके । इसीलिये चौदहवेंके अन्तमे आत्माके उल्लेखके साथ ब्रह्मका भी उल्लेख किया गया है। उसका सीधा मतलब यही है कि हम ढूंढते- ढूंढ़ते नीचे भी जाये और ऊपर भी । आत्माकी तलागमे नीचे और ब्रह्मकी खोजमे ऊपर बढे । नतीजा यह होगा कि सबसे नीचे और सबसे ऊपर जाना ही होगा। इस तरह अन्तिम छोरोके मिल जाने (Extremes meet) के अनुसार आत्मा और ब्रह्म एक हो जायेंगे और हमारा काम हर तरहसे पूरा हो जायगा। बिना सबके नीचे और ऊपर गये तो इन दोनोका ठीक-ठीक पता लग नही सकता है । “अत्यतिष्ठद्दशागुलम्"के द्वारा वैदिक ऋषियोने तो ऐसा ही बताया है । और ऐसा होनेपर दोनोका अन्तिम मिलन अनिवार्य है। इसी बातका स्पष्टीकरण पन्द्रहवाँ अध्याय करता है। कुछ और भी बाते है । “वासुदेव सर्वमिति" (७।१६) मे समस्त ससारको वासुदेव कहके इसी रूपमे इसे देखनेवाले ही पक्के और पहुँचे महात्मा बताये गये है। ज्ञानका आखिरी रूप यही कहा गया है। इधर हमारे यहाँ पुरानीसे भी पुरानी परिपाटी है कि पीपलके वृक्षको वासुदेव कहते और मानते हुए इसकी जडको सीचते रहते है। यह एक धार्मिक ५२
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