८१२ गीता-हृदय श्रीभगवानुवाच प्रकाश च प्रवृत्ति च मोहमेव च पाडव । न द्वेष्टि सप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काक्षति ॥२२॥ श्रीभगवानने कहा-हे पाडव, (तीनो गुणोके क्रमश कार्य) प्रकाश, प्रवत्ति और मोहके होने पर न तो (उनसे) द्वेष रखता है और न यही चाहता है कि वे हट जाये ।२२। यही है पहले प्रश्नका उत्तर । गुणातीतकी पहचान पृछी थी। वही इसमें कही गई है। उदासीनवदासीनो गुणों न विचाल्यते । गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेंगते ॥२३॥ समदुःखसुख स्वस्थ समलोष्टाश्मकाचनः । तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसस्तुति ॥२४॥ मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो । सरिंभपरित्यागी गुणातीत स उच्यते ॥२५॥ (अतएव) जो उदासीनकी तरह रहता है, जिसे गुण हिला-डुला नहीं सकते, 'ये तो गुण ही अपना काम कर रहे है, (मुझे इससे क्या ?)' इस प्रकार (खयाल किये) जो निश्चिन्त पड़ा रहता है (और) जरा भी हिलता-डोलता नही, जिसके लिये दुख-सुख समान है, जो कभी वेचैन नहीं होता, जिसकी नजरोमे मिट्टीका ढेला, पत्थर एव सोना वरावर ही है, जिसके लिये प्रिय-अप्रिय एकसे है, जो हिम्मतवाला है, जिसके लिये अपनी निन्दा या स्तुति एकसी ही है, जो मान-अपमानमे ज्योका त्यो रहता है, जिसके लिये शत्रु या मित्रके पक्ष हई नही (और) जो सभी सकल्पोसे विल्कुल ही बरी है, वही गुणातीत कहा जाता है ।२३।२४।२५। . +
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