गीता-हृदय पुष्टि की गई है । लोग ऐसा न समझ बैठे कि जव गीताने अध्यात्म ज्ञानसे ही शुरू किया है तो उसे सासारिक हानि लाभोसे कोई वास्ता नहीं है, इसीलिये गीताकी दृष्टि इनकी तरफ कतई नहीं है। यही वजह है कि इन सभी सासारिक बातो और खयालोको भी उमने सामने ला दिया है। यदि ऐसा न होता तो गीताकी वात एकागी एव अपूरी रह जाती जैसा कि शुरूमें ही कहा है। गीताको तो सव तरह से पूर्ण और व्यावहारिक वनना था, पूर्ण अनुभवी वनके ही पथदर्शन करना था और वही चीज न हो पाती, अगर यश-अपयश, आत्मसम्मान प्रादिकी ओर से वह नजर फेर लेती। उस दशामें अनुभवी लोग उसमे कमी पाते और उसकी ओर सहसा खिच आते नहीं। इसीलिये इस पहलूको भी उसने नहीं छोडा है। विधि-विधानके अनुसार स्वर्ग-नर्क आदि भी इसी पहलूके भीतर आ जाते है। इनका स्थान न तो अध्यात्म दृष्टिमे है और न योगदृष्टिमें ही। इसीलिये वे भी यही दिवाये गये है। सांख्य और योगमें अन्तर इसके बाद योगवाली दृष्टिकी ओर जानेके पहले एक ही श्लोक- ३८वाँ-रह जाता है। वह यो है, "सुखदु खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयो। ततो युद्धाय युज्यस्व नैव पापमवाप्स्यसि ॥" इसका अर्थ है कि "जय-पराजय, हानि-लाभ और सुख-दुःखको समान समझके-यानी इनकी पर्वा न करके-लडाईके लिये तैयार हो जाओ। फिर तो तुम्हारे पास पाप फटकने भी न पायगा"। लडाईमे हार या जीत-दोमे एक- जरूरी है । फलत तदनुसार ही हानि या लाभ भी अनिवार्य है। फिर तो दुःख या सुख खामखा पाता ही है। यही है साधारण नियम । ये चीजे बदली जा सकती है भी नहीं। इसलिये इन्हें समान बनाना असभव है। इसीलिये गीता कहती है कि इनका बाहरी रूप ज्योका त्यो रहते "
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