८०६ गीता-हृदय ही कहते है न ? और रस्सीसे लिपटना ही तो बन्धन है। इस अध्यायका व्यावहारिक ससारमे सबसे ज्यादा महत्त्व इस बातमें है कि इसने वता दिया है कि स्वभावसे ही परस्पर विरोधी और एक दूसरेको मिटा डालने- वाले पदार्थ भी किस प्रकार आपसमें अच्छी तरह मिलके साथ चल सकते, एक दूसरेकी मदद कर सकते और सारा काम अजाम दे सकते है। यह अपूर्व उपदेश तो शायद ही कही मिला हो या मिलेगा। यही कारण है कि चौदहवेके शुरूमे ही इसे सवसे श्रेष्ठ बताया गया है, सर्वोत्तम कहा गया है । भला, इससे बढके ज्ञानका सुन्दर, सर्व-सुलभ और विशद मार्ग होई क्या सकता है ? दूसरी तरहसे ज्ञान या जानकारी प्राप्त करनेपर तो कभी धोका भी हो सकता है। मगर इसकी जो सबसे वडी खूवी है वह यही कि कही भी किसी भी पदार्थमे धोकेकी गुजाइश रहने पाती नहीं। यह तो सबोका छिपा रूप नगा कर देता है । यही वजह है कि इस अध्यायमें प्रकृतिसे सीधे ही गुणोका विस्तार और पसारा शुरू कर दिया है । गीताकी पौराणिक शैलीकी सबसे सुन्दर खूवी इस अध्यायमे यह पाई जाती है कि शुरूमे ही पालकारिक भाषामे सन्तानोत्पत्ति- की जगह सृष्टिकी उत्पत्तिकी कल्पना करके ब्रह्मके द्वारा प्रकृतिमें गर्भाधान लिखा गया है और उससे पहले-पहल एक ही साथ तीन बच्चोका जन्म बताया गया है । एक तो यही विलक्षणता है कि एक ही साथ तीन बच्चे । इससे खामखा लोगोका ध्यान आकृष्ट हो जाता है कि बात क्या है। फिर वे खोद-विनोद करने लग जाते है, मननमें पड़ जाते है । दूसरे जब वे बच्चे परस्पर विरोधी और एक दूसरेको खानेपर ही तुले जैसे हो तब तो और भी आश्चर्य-जनक चीज हो जाती है कि ये माता-पिता भी खूब है जिनने ऐसे बच्चे जने | इस तरह ब्रह्मको पिता और प्रकृतिको माताके रूपमें चित्रित करनेका प्रयोजन भी पूरा हो जाता है। सृष्टिके सम्बन्धमे शुरू-शुरूका जो गोलमोल और सामान्य ज्ञान
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