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तेरहवां अध्याय ८०३ क्योकि 'एक ही सूर्य' ऐसा कह दिया है । यो तो आकाशके दप्टान्तसे भी आत्माकी एकता ही-अद्वैतवाद ही-सिद्ध है। दूसरी बात है निर्लेपताकी। आकाश इतना वारीक है, सूक्ष्म है कि उसे कोई भी गन्दगी या मैल पकड सकती ही नहीं। मगर जो आत्मा आकाशमे भी है वह कितनी सूक्ष्म होगी यह तो आसानीसे जाना जा सकता है । फिर वह क्यो न निर्लेप हो ? इसपर प्रश्न होता है कि सभी शरीरोका पथदर्शन या हिलना-डोलना एक ही आत्मासे कैसे होगा ? उत्तर है कि एक ही सूर्य तो ससारको चलाता है, रास्ता बताता है । फिर जो सूर्यका भी सूर्य हो- उसकी भी आत्मा हो--वह सारी अधी प्रकृतिको क्यो न चलाये ? क्षेत्रक्षेत्रजयोरेवमन्तरं ज्ञानचक्षुषा। भूतप्रकृतिमोक्षं च ये विदुर्यान्ति ते परम् ॥३४॥ इस तरह क्षेत्र तथा क्षेत्रनमे क्या विलक्षणताएँ है, फर्क है यह बात और जड प्रकृतिका अन्त या नाग भी ज्ञानदृष्टिसे जो लोग जानते है वही परब्रह्म तक पहुंचते है ।३४। पहले सातवे अध्यायमे प्रकृति दो प्रकारकी कही गई है, परा और अपरा। यहाँ अपरा प्रकृतिसे ही मतलब है । उसीकी पहचानके लिये उसे भूतप्रकृति यानी पचभूतोकी जननी कह दिया है । आत्मा तो ऐसी है नहीं। जो मास्यवादी प्रकृतिका नाग नहीं मानते वे गलत है यही जनाने के लिये कह दिया है कि प्रकृतिका मोक्ष या नाग होता ही है। मिथ्या जो ठहरी । नागके बाद ही तो मुक्ति होती है। इस अध्यायमे क्षेत्र और क्षेत्रनके रूपमे ही मसारका विवेचन होनेसे वही इस अध्यायका विषय है। इति श्री क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोगो नाम त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥ श्रीम० जो श्रीकृष्ण और अर्जुनका सवाद है उनका क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग नामक तेन्हयां अध्याय यही है ।