८०२ गीता-हृदय यदा (इसीलिये) जो यह देखता है कि सभी कर्म तो प्रकृतिके द्वारा ही किये जाते है, आत्माको (इसीसे) जो अकर्ता-कुछ भी न करनेवाला- देखता है, वही (तो) देखनेवाला है-जानकार है ।२६। भूतपृथग्भावमेकस्थमनु पश्यति । तत एव च विस्तार ब्रह्म सपद्यते तदा ॥३०॥ जब (मनुष्य) जुदे-जुदे दीखनेवाले पदार्थोको एक ही रूप--- -आत्म- रूप-मे देखता है और उसीसे इनका पसारा देखता है तभी ब्रह्मरूप हो जाता है ।३०। अनादित्वान्निर्गुणत्वात्परनात्मायमव्यय । शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते ॥३१॥ हे कौन्तेय, अनादि एव निर्गुण होनेके कारण ही यह विकारशून्य परमात्मा (रूपी पुरुष या जीव) शरीरमें रहनेपर भी न तो कुछ करता है और न किसीमे सटता है ।३१। यथा सर्दगत सौम्यादाकाश नोपलिप्यते । सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते ॥३२॥ यथा प्रकाशयत्येक. कृत्स्न लोकमिम रवि । क्षेत्र क्षेत्री तथा कृत्स्न प्रकाशयति भारत ॥३३॥ जिस तरह सर्वत्र रहनेपर भी अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण ही आकाश किसीसे भी नही चिपकता, उसी तरह सभी शरीरोमे रहनेवाली प्रात्मा भी किसीसे लिप्त नही होती। जिस तरह एक ही सूर्य सारे ससारको प्रकाशित करता है, उसी तरह (एक ही) क्षेत्रपति- खेतिहर या क्षेत्रज्ञ- सभी क्षेत्रोको प्रकाशित करता है ।३२।३३। यहाँ दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें कही गई है। एक तो आत्माको एक ही माना है । सूर्यका दृष्टान्त भी साफ-साफ इसी मानीमें दिया है।
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