७९८ गीता-हृदय है, अन्धे है । वह भोगका काम करी नही सकते, सभी बातोको नियत्रणके द्वारा मिलाजुलाके (Coordinate) रख नही सकते और बिना इसके भोग हो नहीं सकता। भोगके मानी ही है सभी चीजोको जोड-जाडके सामने लाना । जैसे समप्टिके नियमन आदि (Coordination) के लिये अगत्या ईश्वरकी सत्ता माननी पडती है, वैसे ही व्यष्टिके लिये आत्माकी । अागे यही तर्क दिया भी है। पुरुष. प्रकृतिस्थो हि भुक्ते प्रकृतिजान् गुणान् । कारण गुणसगोऽस्य सदसद्योनिज ॥२१॥ क्योकि पुरुप ही प्रकृतिके सम्बन्धसे ही उससे उत्पन्न त्रिगुण पदार्थोको भोगता है। (इस तरह जो) इन गुणोमे उसकी आसक्ति है वही उसके भले-बुरे जन्मोका कारण है ।२१। उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः । परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन् पुरुष. पर ॥२२॥ (असल बात यह है कि) इस देहमे (यह जो) परमपुरुप है वह तो अलग होके मभी बातोको सिर्फ देखता (और इसी रूपमे) अनुमोदन करता है, कायम रखता है और (अन्तमे उन्हे) भोगता भी है। (वही) महेश्वर और परमात्मा भी कहा गया है ।२२। माक्षी होनेसे ही उपद्रप्टा कहा गया है । चेतनके विना जड पदार्थो- का काम हो नहीं सकता। कही न कही मूलमे चेतन चाहिये ही । यही अनुमोदन है जिसे हमने मम्मेलन और नियत्रण (Coordination) कहा है। यदि ऐसी शक्ति न हो तो सभी चीजे तबड-पनड हो जायें। भत्ता पर्नेका भी यही आगय है। इस तरहके दूरके समर्गमे ही वह भोगनेवाला बन जाता है । क्योकि गीगेमे दूरस्य रस्तपुप्पका प्रतिबिम्ब मडके वह भी लाल नजर आता ही है। उसी तरह इन्द्रियादिके सारे अनचं उगमे प्रतिविम्बित होते है। यही भोग है । लेकिन यह प्रतिविम्ब
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