तेरहवां अध्याय ७६५ , ज्ञान और ज्ञेयका। १८वे श्लोकमे भी, जो आगे आ रहा है, उसी ज्ञान और ज्ञेयका नाम लिया है । अतएव बीचमे दूसरे ज्ञान और ज्ञेयको लेना हमने उचित नहीं समझा। तब तो जबर्दस्तीसी हो जाती-अकाड ताडव बन जाता। एक बात और भी इस ज्ञान और ज्ञेयके ही सम्बन्धमे जान लेनेकी है। पहले भी "क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्ज्ञान" (१३।२)मे ज्ञानकी बात आई है। वहाँ ज्ञेयकी जगह क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ आये है। बेशक "अमानित्व" आदिमे जो ज्ञान शब्द है वह ज्ञानके साधनोके ही लिये आया है । मगर इसके यह मानी हर्गिज नही कि उससे उन साधनोका ही बोध होता है, न कि ज्ञानका भी। उसका तो असली मतलब यही है कि इन्ही साधनोसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वही क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञका यथार्थ ज्ञान हो सकता है, उसीसे हम इन दोनोकी हकीकत जान सकते है। फिर भी "क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो" इस षष्ठीके रहनेके कारण उन दोनोके ज्ञेय या ज्ञानके विषय होनेपर भी उस ज्ञेय और इस ज्ञेयमे फर्क है। वहाँ ज्ञान ही प्रधान और वही दोनो अप्रधान है। क्योकि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञके जो रूप है और जिनका ज्ञान होता है वह तो मायामय है, कल्पित है। उनकी भी हकीकत तो ब्रह्मात्मा ही है। इसीलिये षष्ठी लिखके उन्हे अप्रधान या अमुख्य बना दिया है। मगर यहाँ तो साफ ही 'ज्ञेयम्' लिखा है । इसलिये यह मुख्य है । अतएव 'ज्ञानगम्य' विशेषणं यहाँ लगा दिया है। इसका आशय यह है कि ज्ञानके द्वारा अन्तमे हमे वही पहुँचना है। फिर वह असल और हकीकत क्यो न हो ? ऊपरके श्लोकोमे जिन अनेक रूपोमे इस ब्रह्मात्माको दिखाया है कही लोग उन रूपोको ही ठीक न मान बैठे इसलिये भी 'ज्ञानगम्य' कह दिया, जिससे स्पष्ट हो गया कि ये सब रूप या ढग केवल उसे जानने, देखने या नजरमे लाने के लिये ही है, न कि वही वस्तु- गत्या इन रूपोवाला है। इस तरह उसके प्रभावकी भी जानकारी हो जाती है। यह बात 'यत्प्रभावश्च मे पहले ही आई थी भी।
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