७६४ गीता-हृदय - होनेसे ही बखूबी जाना नही जा सकता। दूर भी है (और) नजदीक भी। पदार्थोंमें बँटा न होके सवमें एकरस है। (मगर) अलग-अलग जैसा लगता है। पदार्थोंका भरण-पोषण करनेवाला उसीको जानना चाहिये। वही सवको ग्रस लेनेवाला और बनानेवाला भी है। वह ज्योतियोको भी ज्योति देनेवाला (तथा) अंधेरेसे परे माना जाता है। (वही) पूर्वोक्त ज्ञान है और ज्ञेय भी। ज्ञानके द्वारा प्राप्त करने योग्य भी वही है । वही सवोंके हृदयोमे मौजूद है ।१२।१३।१४।१५।१६।१७। इन श्लोकोमें जो कुछ भी वर्णन है वह अालकारिक होनेके साथ ही वास्तविक स्थितिसे पूरा ताल्लुक रखता है। यही इसकी खूबी है । आत्माके बारेमे जो कुछ हमने पहले लिखा है यदि उसे अच्छी तरहसे हृदयगम कर लिया जाय तो ये सारी वाते बखूबी समझमें आयें। इन्हें पढके मजा भी पाये। हाँ, एक बात कह देना जरूरी है। आत्मा तो ऐसी ठसाठस भरी हुई जैसी है कि उसमे विभाग करने या उसे अलग-अलग देखनेकी गुजाइश हई नहीं, वशर्ते कि हमारी दृष्टि ठीक हो । आखिर इचभर भी, अणु या वालभर भी कोई जगह है नहीं जो खाली हो । जहाँ कुछ नही वहाँ अनन्त परमाणु ही मौजूद है, या अगर और नहीं तो दिशा और काल (Space and time) तो हई, और वह है इन सवोकी आत्मा । इसीलिये बीच-बीचमे फांक पडनेकी सभावना ही कहा है ? फलत चाहे हम कुछ बोले, कही जायें, कही हाथ बढाये, किधर भी मुंह, सर या आँखे करके इशारा करे, सर्वत्र सब कुछ जानने-सुननेके लिये वह मौजूद ही है। उसके विना टिके कौन ? और न टिकनेमे भी तो निषेध रूपसे (negatively) उसे रहना ही पड़ता है । यहाँ ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य ये तीन वातें कही गई है। इनमे दो तो पहले ही आ चुकी है-ज्ञान और ज्ञेय। इसीलिये उचित समझते है कि उन्हीका उल्लेख इन श्लोकोमें माना जाय, न कि सर्वसाधारण
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