७६० गीता-हृदय ? सृप्टिका पसारा स्वीकार करते है, यह सुन्दर तर्क दिया है कि भला यह कैसे होगा ? भला, असत्से यह विरोधी सत् पदार्थ कभी पैदा हो सकते है ? "कुतस्तु खलु सोम्यैव स्यादिति होवाचकथमसत सज्जायत" ? भला, इससे बढके निश्चित और तर्कयुक्त वात और क्या हो सकती है इसी अध्यायमे पूर्वोक्त वटवीजका दृष्टान्त देके समझाया गया है । यह भी कहा गया है कि जल, अग्नि प्रोदिसे ही उसके मूल कारण ब्रह्मका पता लगता है। ऐसी ही हजारो युक्तियां देके और विश्लेषण-विवेचन करके ब्रह्मका तर्क-दलीलके साथ अत्यन्त निश्चित प्रतिपादन किया गया है। इन्ही वचनोको इस श्लोकमें ब्रह्मसूत्रपद या ब्रह्मके सूचक एव प्रति- पादक वाक्य कहा है । इसपर विशेष विचार पहले ही हो चुका है। महाभूतान्यहकारो बुद्धिरव्यक्तमेव इन्द्रियाणि दशैक च पच चेन्द्रियगोचरा ॥५॥ इच्छा द्वेष सुख दुख सघातश्चेतना धृति । एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम् ॥६॥ पांच महाभूत, जिन्हें पचतन्मात्रा या सूक्ष्म भूत कहते है, अहकार, समप्टिवुद्धि या महत्तत्त्व, प्रकृति, ग्यारह इन्द्रियाँ, इन्द्रियोके पाँच विषय, इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, शरीर, जो इन्द्रियोंके सम्बन्धसे सुख-दुखका अनुभव करता है, चेतनता या बुद्धि और धैर्य-~-सक्षेपमे यही क्षेत्र और उसके विकार-कार्य-कहे गये है ।५।६। इस पर यहाँ ज्यादा लिखनेकी जरुरत नही। पहले ही पूर्ण प्रकाश डाल चुके है । सास्य दर्शनमे प्रकृति, महान्, अहकार और पचतन्मात्रा ये पाठ, दस इन्द्रियाँ और अन्त करण ये ग्यारह और इन्द्रियोके रूप, रस आदि पाँच विषयोको मिलाके सोलह, इस प्रकार कुल चौबीस पदार्थ मानके प्रकृति या प्रधानको मूल माना है। वही यहाँ तीसरे श्लोकका क्षेत्र है। जिन सातको उसके वाद गिनाया है ये प्रकृति-विकृति कहाते
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