७८५ गीता-हृदय ऋषियोने (यही बात) वहुत ढगसे वर्णन की है, वेदके अनेक मत्रोने जुदा-जुदा (कही है) और ब्रह्मप्रतिपादक उपनिषद वाक्योने भी तर्क- युक्तिके साथ निश्चित रूपसे बताई है ।४। इस श्लोकमें इस विषयके प्रमाणोको कह चुकनेके बाद अगले श्लोकमें क्षेत्र-क्षेत्रज्ञकी पूर्वोक्त सारी बातें कहना शुरू करेंगे और इस प्रकार तीसरे श्लोकमें छिडी बातोको बतायेंगे । यही बात १८वे श्लोक नक जायगी। उसके बाद इन्हीका विशेष विश्लेषण चलेगा। यहाँ ऐसा कहनेका प्रयोजन यही है कि यह एकदम कोई नई बात नहीं है जिसे पहले पहल कृष्ण ही कह रहे हो। क्योकि सृष्टि और उससे आत्माका सम्बन्ध यह चीज बहुत ही पुरानी है। इसीलिये इसपर ऋषि-मुनियो, वैदिक मत्रो और उपनिषदोका ध्यान जाना जरूरी था। और अगर फिर भी न गया है, तो हो न हो कुछ बात है, ऐसा खयाल हो सकता था। फलत आगेके उपदेशोमें अश्रद्धाकी गुजाइश भी हो सकती थी। इसलिये पहले ही कह दिया कि ये बाते अपने-अपने ढगसे पहले भी सवने खूब ही लिखी है। कर्म-प्रकर्म या कर्मयोगकी बात तो जुदी है। इसलिये उसमे मतभेद या नवीनताकी गुजाइश हो सकती है। वह मानी भी जा सकती है। मगर जिस आत्मज्ञानके आधारपर वह बात कही गई है उसमे ही यदि गडबड हो तो समूचा आधार ही खत्म समभिये । यह भी नही कि इसमें भी मतभेद रहेगा ही। यह तो कर्तव्यकी बात न होके वस्तुस्थिति या ठोस चीज (hard fact) की बात है न ? और अगर इसमें ही मतभेद या नवीनता चले तो सर्वत्र अविश्वास ही अविश्वास हो जायगा। इसीलिये यह कह देना जरूरी था कि इसमें सभीकी एक ही राय है। हाँ, कहने का तरीका जुदा-जुदा जरूर है । इस श्लोकमें ऋषियो, वैदिक मत्रो और ब्राह्मणो या उपनिषदोके वचनोका निर्देश है। वैदिक मत्रोके द्रष्टा या बनानेवाले बहुतेरे ऋषियोको
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