७८६ गीता-हृदय . , लेती और तवाह कर डालती है । यही वात "पुरुप प्रकृतिस्थो हि भुक्ते प्रकृतिजान् गुणान्” (१३।२१) में कही गई है। प्रश्न होता है कि क्षेत्रज्ञ इन क्षेत्रोमे खुद ही बँध तो गया है। अब इनसे पिंड छूटनेमे दिक्कत भी है । वेश्याने इस भोले-भालेको अनजानमें फंसा लिया है सही। काफी बर्बाद भी कर डाला है। मगर क्या इस आफतसे छूटनेका कोई उपाय नहीं है ? और अगर है तो कौन सा ? उत्तर है कि उपाय जरूर है । जब हम सारी बाते ठिकानेसे समझ जायँ, अपनी हालत वखूबी जान जायें, हमारा क्या अधिकार है, हम क्या कर सकते है, फंसनेकी वजह क्या है, आदि चीजे जान ले, तो हिम्मत कर इन्हें उठा फेंकेगे। दूसरा रास्ता है नही । इसके लिये खेतोका पूरा ब्योरा और शुरूसे उनका इतिहास भी जान लेना जरूरी है कि ये कव कैसे तैयार हुए और हम इनमे कैसे-कैसे फंसे। क्योकि इसी जानकारीसे हमें काफी वजहें मिल जायेंगी, जिनके बलपर वाजीदावा देके हट जायें। और माकूल वजह होनेपर इसमे अडचन भी क्यो होगी ? यही वात शुरूके "महाभूतान्यहकार" प्रभृति श्लोकोमे है। इनमें खेतोका कच्चा चिट्ठा है। "अमानित्वमदभित्व" आदिमे जानकारीके उपाय बताये गये है जिससे हम पूरे आगाह हो जायें और हिम्मत ला सके । वेश्याका कच्चा चिट्ठा जान लेने पर ही, उसके सभी गुणो-सभी कारनामो-को बखूबी समझ लेनेपर ही, उसके जालसे छूट सकते है । इसीलिये प्रकृतिका ब्योरा दिया गया है, ताकि जानकर सजग हो सके। इन्ही सब बातोको दिमागमें रखके- श्रीभगवानुवाच शरीर कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते । एतद्यो वेत्ति त प्राहु. क्षेत्रज्ञ इति तद्विद. ॥१॥ 1
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