तेरहवाँ अध्याय ७८३ भी इस सृष्टिका ही विश्लेपण-विवेचन है । सोलहवे एवं सत्रहवेमे इस विवेचन-विश्लेषणसे होनेवाले ज्ञानके सम्बन्धकी ही. कुछ बातोका प्रका- रान्तरसे निरूपण है । ज्ञानकी असली बुनियाद क्या है, उसके लिये कौन- सी चीज जरूरी है, उसमे क्या क्या बाधाये कैसे आती है, यही बाते सोलह तथा सत्रह अध्यायोमे मुख्यत आई है । रह गया बीचका पन्द्रहवाँ अध्याय । सो इसमें दोनोका मिश्रण है। कुछ दूर तक शुरूमे मुख्यतः सृष्टिकी बात है और अन्तमे प्रधानतया ज्ञानकी ही बात आई है । इस प्रकार पाँच अध्यायोका बँटवारा प्राय. दो समान भागोमे करके ज्ञानविज्ञानका निरूपण एक प्रकारसे पूरा कर दिया गया है । अठारहवेंमे समस्त गीता- का उपसहार है। इसीलिये स्वभावत. ज्ञानविज्ञानकी भी बाते आई ही है, जैसा कि त्रिगुणात्मक पदार्थोके निरूपणसे स्पष्ट है। हाँ, विभूति सबधी पदार्थोको देखने और जाननेके बाद जो पहला सवाल किसी भी समझदारके मनमे हो सकता है वह यही कि आखिर इन सभी भौतिक या प्राकृतिक पदार्थोंका निर्लेप आत्मासे ताल्लुक क्या है और क्यो है ? 'यदि कुछेकका सम्बन्ध रहे भी, तो भी सभी महाभूतो और पर्वतादि भीषण पदार्थोसे क्या ताल्लुक अगर यह भी मान ले कि क्लिष्टसे क्लिष्ट और भीषणसे भीषण हिम-प्रदेशो तकमे भी जीवोकी सृष्टि तो मिलती ही है, उस जीवसे सूना तो कोई पदार्थ हई नही, तो सवाल होता है कि काजीको शहरकी फिक्रसे दुबले होने तथा मरनेकी क्या जरूरत ? अर्जुन.चला था अपनी शकाये मिटाने । उसे थी अपनी आत्माके कल्याणकी चिन्ता । फिर सारे ससारके इस पंवारेकी क्या जरूरत ? और अगर यही मान ले कि आत्मा तो एक ही है और उसीके ये अनन्त रूप है, इसीलिये सभीकी फिक्र करनी ही पडती है, तो प्रश्न होता है कि ये अनन्त रूप हुए क्यो और कैसे ? यह प्रात्मा इस भारी बलामे आ फँसी क्योकर ? इन वाहियात पदार्थोंसे इसका मेल भी क्या है कि ?
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