७८० गीता-हृदय दु खादिमे भी जो एक ही तरह रहे, जिसे कही भी आसक्ति न हो, निन्दा और स्तुति जिसके लिये एक सी हो, जिसकी जवान कावूमे हो, (प्राव- श्यकता होनेपर काम चलाऊ) जोई मिल जाय उसीसे जो सतुष्ट हो जाये, जिसका कोई घरवार न हो और जो अचल वुद्धिवाला हो, वही मनुष्य मेरा प्रिय है ।१८।१६॥ ये तु घामृतमिदं ययोक्तं पर्युपासते। श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेप्तीव मे प्रियाः॥२०॥ जो भक्तजन मेरी ऊपर बताई इन धर्म युक्त (एव) अमृततुल्य - वातोके अनुसार श्रद्धापूर्वक चलते और मेरे सिवाय अन्य किसीकी पर्वा नहीं करते वह मेरे अत्यन्त प्रिय है ।२०। यहाँ १३वें श्लोकमे जो मैत्र और करुण शब्द है वह “मैत्री करुणा- मुदितोपेक्षाणा सुखदु खपुण्यापुण्यविषयाणा भावनातश्चित्त प्रसादनम्" (योग० ११३३) के अनुसार मंत्री तथा करुणा गुणवालोंके ही वाचक है । जैसे सावुनसे कपडेकी मैल हटाते है वैसे ही चित्तकी मैल हटाने और उसे न आने देनेके ही लिये ये दोनो गुण माने गये है। यदि सुखियाके साथ मैत्री न हो तो ईर्ष्या हो सकती है। इसी तरह दुखिया पर करुणा न हो तो दु खसे द्वेष हो सकता है । यही दोनो भारी मैल है । इसी प्रकार उद्वेगका अर्थ है घबराहट । जिसके आचरण या रहन- सहनसे औरोको तथा औरोके कामोंसे जिसे परीगानी जरा भी न हो वही सच्चा भक्त है। सर्वारभपरित्यागीका अर्थ है किसी भी भले-बुरे कामका सकल्प न करे । क्योकि मकल्पके बाद जो कामना होती है वही फंसाती है। उदासीनके मानी है "कोई मरे कोई जिये; फक्कड घोल बताशा पिये" । यानी दुनियाके झमेलोका जिसपर कोई असर न हो-जो किसी पोर न झुके । ।
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