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७७८ गीता-हृदय यह वात न होगी। इसीके साथ १२वे श्लोकमे 'क्योकि'के अर्थमें जो 'हि आया है वह भी दुरुस्त सिद्ध होगा। क्योकि हमारे रास्तेसे तो १२वाँ पहलेके तीन श्लोको की ही बातोकी पुष्टि करता है न ? "त्यागाच्छा- न्तिरनन्तरम्'--"त्यागके अनन्तर ही शान्ति" यह भी हमारे अर्थमे ठीक ठीक लग जाता है। इतना ही नही । अभ्यासके बाद निराकार और साकार दोनोकी ही अनन्य भक्ति हो सकती है, हमारे इस कथनका १२वेंके वादवाले श्लोकोसे भी पूरा सम्वन्ध जुट जाता है। क्योकि उनमे जिस दशाका और जिस समदर्शनका विवरण १३से १६ तकके श्लोकोमे है उसमे और “विद्याविनयसम्पन्ने" (५॥१८-२१) वाले समदर्शनमें जरा भी अन्तर नही है। “विद्याविनय" वाला आत्मज्ञानीका ही है यह तो सभी मानते है। इसलिये यहाँ भी उसीको माननेमे कोई उज़ नहीं हो सकता है। साकार भक्तिका भी पर्यवसान उसीमें है, क्योकि उस समदर्शनके विना तो मोक्ष होई नही सकता। यही कारण है कि स्थितप्रज्ञ, भक्त और णातीत-तीनो ही-के वर्णन एकमे ही है। श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यान विशिष्यते । ध्यानाकर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् ॥१२॥ क्योकि अभ्याससे अच्छा--कामका-तो ज्ञान है, ज्ञानसे भी अच्छा ध्यान है (और) ध्यानसे भी अच्छा--कारगर-है कर्मोके फलोका त्याग । (क्योकि इस) त्यागसे फौरन ही शाति मिलती है ।१२। अद्वेष्टा सर्वभूताना मैत्र करुण एव च। निर्ममो निरहकार. समदु खसुख क्षमी ॥१३॥ सन्तुष्ट सतत योगी यतात्मा दृढनिश्चयः । मपितमनोबुद्धिों में मद्भक्त स मे प्रिय. ॥१४॥ हमारा जो योगी भक्त किसी पदार्थसे द्वेप न करे, मवके साथ मैत्री और करुणाका भाव रखे, ममता और अहन्ता -माया-ममता से रहित