बारहवां अध्याय ७७७ उन्हे खामखा चैन और शान्तिकी प्राप्ति फौरन ही हुई। यह स्वाभाविक बात है। चाहे पीछे कुंछ हो, मगर तत्काल मनकी घबराहट और उसका उद्वेग तो जाता रहा । और एक वार ऐसा होते ही उनने जो इसका तत्काल मजा चख लिया तो फिर यही वात रह-रहके करने लगे। इस तरह उलटे धक्केसे मनकी शाति होते होते ध्यानकी योग्यता होती है। फिर यह ध्यान चाहे सीधे भगवानमे मन लगाके हो, या भगवदर्पण बुद्धिसे कर्म करके हो । यह तो आदमीकी दशा और योग्यतापर ही निर्भर करता है। इसीलिये ध्यानके भीतर भगवदर्थक कर्म भी आ गया। क्योकि उसके द्वारा भी मनकी एकाग्रता ही तो होती है। हाँ, सीधे हो तो और अच्छी बात हो । इस तरह जवं एकाग्रता हुई और ध्यानका रास्ता खुला, तो जो बात पहले दिलमै बैठती ही न थी वह भी बैठने लगी। अनन्य भावनासे भगवानकी भक्ति करे, चाहे निराकारकी हो, या साकारकी- निराकारवालीको ही आत्मदर्शन या समदर्शन भी कहते है---यह बात पहले तो दिलमे बैठती ही न थी। मगर अब मनपर काबू होनेसे बैठी । यही है ज्ञान । इसके बाद ही फौरन अभ्यासकी सीढी आ जाती है। क्योकि यह ज्ञान होते ही एकाएक मन पूर्ण स्थिर तो हो जायगा नही । अतएव अभ्यास तो करना ही होगा। इस प्रकार अभ्यास करते-करते अनन्य भक्ति आप ही हो जायगी। यदि साकारमे मन टिकानेका अभ्यास होगा तो उसकी । नही तो निराकारकी ही। इस प्रकार देखनेसे पता चल गया कि अभ्याससे ज्ञान, ज्ञानसे ध्यान और ध्यानसे भी कर्मोके फलोके त्यागको जो वडा या अच्छा बनाया है वह केवल इसीलिये कि वह क्रमश नीचेकी ही सीढियाँ है । फलत. आम लोगोके कामकी चीजे वही है । न कि सचमुच ही उनका दर्जा ऊंचा है। ऐसा मानना तो निरा पागलपन ही न होके इससे पूर्वके श्लोकोके उलटा जाना भी हो जायगा। हाँ, हमने जो कुछ कहा है उसे माननेमे ही
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